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यजुर्वेद अध्याय - 19

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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 88
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - सरस्वती देवता छन्दः - स्वराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    427

    मुख॒ꣳ सद॑स्य॒ शिर॒ऽइत् सते॑न जि॒ह्वा प॒वित्र॑म॒श्विना॒सन्त्सर॑स्वती। चप्यं॒ न पा॒युर्भि॒षग॑स्य॒ वालो॑ व॒स्तिर्न शेपो॒ हर॑सा तर॒स्वी॥८८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मुख॑म्। सत्। अ॒स्य॒। शिरः॑। इत्। सते॑न। जि॒ह्वा। प॒वित्र॑म्। अ॒श्विना॑। आ॒सन्। सर॑स्वती। चप्य॑म्। न। पा॒युः। भि॒षक्। अ॒स्य॒। वालः॑। व॒स्तिः। न। शेपः॑। हर॑सा। त॒र॒स्वी ॥८८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मुखँ सदस्य शिरऽइत्सतेन जिह्वा पवित्रमश्विनासन्त्सरस्वती । चप्यन्न पायुर्भिषगस्य वालो वस्तिर्न शेपो हरसा तरस्वी ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मुखम्। सत्। अस्य। शिरः। इत्। सतेन। जिह्वा। पवित्रम्। अश्विना। आसन्। सरस्वती। चप्यम्। न। पायुः। भिषक्। अस्य। वालः। वस्तिः। न। शेपः। हरसा। तरस्वी॥८८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 88
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यथा जिह्वा सरस्वती स्त्र्यस्य पत्युः सतेन शिरसा सह शिरः कुर्यादासन् पवित्रं मुखं कुर्यादेवमश्विना द्वाविद्वर्त्तेताम्, यदस्य पायुर्भिषग् वालो न वस्तिः शेपो हरसा तरस्वी भवति, स चप्यन्न सद् भवेत्, तत्सर्वं यथावकुर्यात्॥८८॥

    पदार्थः

    (मुखम्) (सत्) (अस्य) पुरुषस्य (शिरः) (इत्) एव (सतेन) उत्तमावयवैर्विभक्तेन शिरसा। सत् इत्युत्तरनामसु पठितम्॥ (निघं॰३.२९) (जिह्वा) जुहोति गृह्णाति यया सा (पवित्रम्) शुद्धम् (अश्विना) गृहाश्रमव्यवहारव्यापिनौ (आसन्) आस्ये (सरस्वती) वाणीव ज्ञानवती स्त्री (चप्यम्) चपेषु सान्त्वनेषु भवम्। चप सान्त्वने धातोरेच् ततो यत्। (न) इव (पायुः) रक्षकः (भिषक्) वैद्यः (अस्य) (वालः) बालकः (वस्तिः) वासहेतुः (न) इव (शेपः) उपस्थेन्द्रियम् (हरसा) हरित येन तेन बलेन (तरस्वी) प्रशस्तं तरो विद्यते यस्य सः॥८८॥

    भावार्थः

    स्त्रीपुरुषौ गर्भाधानसमये परस्पराङ्गव्यापिनौ भूत्वा मुखेन मुखं चक्षुषा चक्षुः मनसा मनः शरीरेण शरीरं चानुसंधाय गर्भं दध्याताम्, यतः कुरूपं वक्राङ्गं वाऽपत्यन्न स्यात्॥८८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जैसे (जिह्वा) जिससे रस ग्रहण किया जाता है, वह (सरस्वती) वाणी के समान स्त्री (अस्य) इस पति के (सतेन) सुन्दर अवयवों से विभक्त शिर के साथ (शिरः) शिर करे तथा (आसन्) मुख के समीप (पवित्रम्) पवित्र (मुखम्) मुख करे। इसी प्रकार (अश्विना) गृहाश्रम के व्यवहार में व्याप्त स्त्री-पुरुष दोनों (इत्) ही वर्त्तें तथा जो (अस्य) इस रोग से (पायुः) रक्षक (भिषक्) वैद्य और (वालः) बालक के (न) समान (वस्तिः) वास करने का हेतु पुरुष (शेपः) उपस्थेन्द्रिय को (हरसा) बल से (तरस्वी) करनेहारा होता है, वह (चप्यम्) शान्ति करने के (न) समान (सत्) वर्त्तमान में सन्तानोत्पत्ति का हेतु होवे, उस सब को यथावत् करे॥८८॥

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुष गर्भाधान के समय में परस्पर मिल कर प्रेम से पूरित होकर मुख के साथ मुख, आंख के साथ आंख, मन के साथ मन, शरीर के साथ शरीर का अनुसंधान करके गर्भ को धारण करें, जिससे कुरूप वा वक्राङ्ग सन्तान न होवे॥८८॥

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    विषय

    मुख से राज्यव्यवस्था की तुलना ।

    भावार्थ

    (अस्य) इस राजा का ( मुखम् ) शरीर में मुख के समान और (शिरः) शिर के समान (शत् ) संसत् राजसभा है । ( आसन् ) मुख में जिस प्रकार ( जिह्वा) जिह्वा है उसी प्रकार ( सतेन) विभक्त राजसभा में (पवित्रम् ) सदाचारवान् ( अश्विना ) स्त्री-पुरुष और (सरस्वती) पवित्र वेदवाणी, व्यवस्था पुस्तक है । (पायुः) शरीर में 'पायु' गुदा भाग जिस प्रकार शरीर में से मल मूत्रादि दूर करके शरीर को शान्ति देता है (न) उसी प्रकार ( चध्यम् ) राष्ट्र में दुष्टों को दूर कर के प्रजा को सांत्वना और सुख की आशा दिलाने के श्रेष्ठ कार्य हैं । ( वालः) शरीर में जिस प्रकार बाल रोगों को दूर करते हैं और पुच्छादि के बाल मशक आदि को दूर करते हैं उसी प्रकार (अस्य) इस राजा के, राष्ट्र के (भिषग्) रोगों के निवारक वैद्यगण हैं । ( वस्तिः शेपः न ) जिस प्रकार शरीर में वस्ति अर्थात् मूत्र स्थान और पुरुष शरीर में 'शेप' अर्थात् प्रजननेन्द्रिय दोनों में एक तो वेग से मूत्र प्रवाहित करके शरीर को शुद्ध करता है दूसरा काम सुखाभिलाषी होता है उसी प्रकार राष्ट्र में ( हरसा) शत्रु को मार भगाने में समर्थ वीर्य से ( तरस्वी ) अति वेगवान् सेनाबल दुष्टों को राष्ट्र से बाहर निकालता है और राष्ट्र के सुखों को प्राप्त भी कराता है। 'सतः' तिरः सतः इति प्राप्तस्य । निरु० ३ । ४ । ३ ॥ 'चप्यं' चप सान्त्वने । भ्वादि: ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अश्व्यादयः । सरस्वती । स्वराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    अङ्ग-प्रत्यङ्ग का स्वरूप

    पदार्थ

    १. (अस्य) = इस - गतमन्त्र के 'कुम्भ' का (मुखम्) = मुख (सत्) = उत्कृष्ट होता है। [सत् इति उत्तरनाम - नि० ३।२९ ] । २. (सतेन) = इस उत्कृष्ट मुख के साथ (इत्) = निश्चय से (शिरः) = मस्तिष्क होता है। जहाँ इसका मुख उत्कृष्ट होता है, वहाँ इसका मस्तिष्क भी ठीक होता है । ३. (जिह्वा पवित्रम्) = इसकी जिह्वा पवित्र होती है। (अश्विना पवित्रम्) = इसके प्राणापान इसे पवित्र बनानेवाले होते हैं । ४. 'मुख व मस्तिष्क की उत्कृष्टता' तथा 'जिह्वा व प्राणापान की पवित्रता' के कारण ही (आसन्) [आस्ये] = इसके मुख में सरस्वती विद्या की अधिदेवता का निवास होता है। ५. इस विद्या के कारण सब वस्तुओं का ठीक प्रयोग करने से (पायुः) = इसकी मलशोधक गुदा-इन्द्रिय (चप्पम्) = [चप सान्त्वने] इसको सान्त्वना व शान्ति प्राप्त करानेवाली है। मलशोधन ठीक हो जाने से शरीर व मन में शान्ति व प्रसन्नता का अनुभव होता है। ६. (अस्य) = इसके (बालः) - भिन्न-भिन्न शरीर - अङ्गों में उत्पन्न बाल (भिषक्) = इसके वैद्य होते हैं। ये उसे सर्दी-गर्मी से बचाने में सहायक होते हैं। मलों के चूसने में उपयुक्त होते हैं और इस प्रकार से रोगनिवारण करते हुए इसके वैद्य ही होते हैं। ७. (वस्तिः न शेप:) = मूत्रस्थान और मूत्रेन्द्रिय तो (हरसा) = मलहरण के द्वारा (तरस्वी) = इसको बलसम्पन्न बनानेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- 'कुम्भ' अर्थात् अपने अन्दर शक्ति व आनन्द का पूरण करनेवाले के सब अङ्ग सुन्दर होते हैं। मुख और सिर तो उत्कृष्ट होते ही हैं, इसकी जिह्वा व इसके प्राणापान पवित्र होते हैं। इसके मुख में सरस्वती का निवास होता है। इसकी मलशोधक इन्द्रियाँ भी मलशोधन के द्वारा इसे बलवान् बनाती हैं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    स्री-पुरुषांनी गर्भाधानाच्या वेळी परस्पर प्रेमानेयुक्त होऊन मुखाबरोबर मुख, नेत्राबरोबर नेत्र, मनाबरोबर मन, शरीराबरोबर शरीर जुळवून गर्भधारणा करावी म्हणजे कुरूप किंवा वक्रांग संतान होणार नाही.

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    विषय

    पुनश्च, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (जिह्वा) ज्या जिह्वेद्वारे रसग्रहण केले जाते, (सरस्वती) तसेच ज्याने उत्तम वाणी बोलली जाते, ही स्त्री (पत्नी) त्या मधुर वाणीप्रमाणे आहे. (ह्या पत्नीने पतीसमागमाच्या वेळी) (अस्य) या आपल्या पतीच्या (सतेन) (नासिका, नेत्र, कर्ण) या सुंदर अवयवांनी युक्त (शिरः) आपले शिर पतीच्या शिरासमोर ठेवावे. (आसन्‌) त्याच्या मुखाजवळ आपले (पवित्रम्‌) पवित्र (मुखम्‌) मुख ठेवावे. अशा प्रकारे (अश्विना) गृहस्थाश्रमाचे पालन करणाऱ्या स्त्री पुरूषांनी (इत्‌) वागले पाहिजे. याशिवाय (अस्य) या पतीचा रोगादीपासून (पायुः) रक्षण करणारा (भिषक्‌) वैद्य (जसे आचरण करतो) तसे आणि वंश वृद्धी करण्यासाठी (बालः) एका (न) बालकाची (वस्तिः) वास (म्हणजे वंश स्थापना करणारा पती) (शेपः) आपल्या उपस्थेन्द्रियाद्वारे (हरसा) बलपूर्वक (तरस्वी) प्रयोग करणारा असतो. तो (चप्यम्‌) शांती वा समाधान देणाऱ्या कर्माप्रमाणे (सत्‌) (समागमाच्यावेळी (सत्‌) संतानोत्पत्तीचे कारण होवो. (पतीने समागमक्रियेद्वारे गर्भधारणा करावी) ॥88॥

    भावार्थ

    भावार्थ - पती-पत्नीच्या हृदयात गर्भाधानावेळी एकमेकाविषयी प्रेमभाव असावा. दोघांनी एकमेकाच्या मुखासमोर मुख डोळ्यांसमोर डोळे असू द्यावेत. मनाशी मनाचा आणि शरीराचा शरीराशी संयोग करून दोघांनी गर्भधानविधी पूर्ण करावा. अशा व्यवहारामुळे त्यांची संतती कुरूप वा विकलांग होणार नाही ॥88॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as a wife, the recipient of semen, at the time of cohabitation keeps her head opposite to the head of the husband, and her face opposite to that of his, so should both husband and wife perform together their domestic duties. A husband is a protector like a physician. He lives happily like a child, and with tranquillity produces progeny with penis keen with ardour.

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    Meaning

    Sarasvati and the Ashvinis, enlightened woman and the health and spirits of the man, create a happy home with the head and mouth of both together in truth with a sweet tongue fluent in purity. The purity, comfort and security of the home, the love and desire of the woman’s fertility, the passion and power of the man’s virility, and the child as bloom of the health and love of the union, all these keep the family together.

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    Translation

    The face is its more important part along with the important head. The tongue is a strainer. Twin-healers and the divine Doctress are in its mouth. The anus collects the residue. The kidney filtering the urine, and the penis, quick with vigour, is its physician. (1)

    Notes

    Sat, an important part. Asan,आस्यं मुखं , mouth. Capyam,चप्यं, that which collects. Vālaḥ, filter. Sepaḥ, लिंगं, penis.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন (জিহ্বা) যাহা দ্বারা রস গ্রহণ করা হয় উহা (সরস্বতী) বাণীর সমান স্ত্রী (অস্য) এই পতির (সতেন) সুন্দর অবয়ব হইতে বিভক্ত শির সহ (শিরঃ) শির করিবে তথা (আসন্) মুখের সমীপ (পবিত্রম্) পবিত্র (মুখম্) মুখ করিবে এই প্রকার (অশ্বিনা) গৃহাশ্রমের ব্যবহারে ব্যাপ্ত স্ত্রী পুরুষ উভয়ে (ইৎ) ই আচরণ করিবে তথা যাহা (অস্য) এই রোগ দ্বারা (পায়ুঃ) রক্ষক (ভিষক্) বৈদ্য (বালঃ) ও বালকের (ন) সমান (বস্তিঃ) বাস করিবার হেতু পুরুষ (শেপঃ) উপস্থেন্দ্রিয়কে (হরসা) বল দ্বারা (তরস্বী) প্রশস্ততর করা হয় উহা (চপস্য) শান্তি করিবার (ন) সমান (সৎ) বর্ত্তমানে সন্তানোৎপত্তির হেতু হইবে সেই সবকে যথাবৎ করিবে ॥ ৮৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–স্ত্রী-পুরুষ গর্ভাধান সময় কালে পরস্পর মিলিয়া প্রেমপূরিত হইয়া মুখের সঙ্গে মুখ, চোখের সঙ্গে চোখ, মনের সহিত মন, শরীর সহ শরীরে অনুসন্ধান করিয়া গর্ভ ধারণ করিবে যাহাতে কুরূপ বা বক্রাঙ্গ সন্তান না হয় ॥ ৮৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    মুখ॒ꣳ সদ॑স্য॒ শির॒ऽইৎ সতে॑ন জি॒হ্বা প॒বিত্র॑ম॒শ্বিনা॒সন্ৎসর॑স্বতী ।
    চপ্যং॒ ন পা॒য়ুর্ভি॒ষগ॑স্য॒ বালো॑ ব॒স্তির্ন শেপো॒ হর॑সা তর॒স্বী ॥ ৮৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    মুখমিত্যস্য শঙ্খ ঋষিঃ । সরস্বতী দেবতা । স্বরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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