यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 62
ऋषिः - शङ्ख ऋषिः
देवता - पितरो देवता
छन्दः - निचृत त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
83
आच्या॒ जानु॑ दक्षिण॒तो नि॒षद्ये॒मं य॒ज्ञम॒भिगृ॑णीत॒ विश्वे॑। मा हि॑ꣳसिष्ट पितरः॒ केन॑ चिन्नो॒ यद्व॒ऽआगः॑ पुरु॒षता॒ करा॑म॥६२॥
स्वर सहित पद पाठआच्येत्या॒ऽअच्य॑। जानु॑। द॒क्षि॒ण॒तः। नि॒षद्य॑। नि॒षद्येति॑ नि॒ऽसद्य॑। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। अ॒भि। गृ॒णी॒त॒। विश्वे॑। मा। हि॒ꣳसि॒ष्ट॒। पि॒त॒रः॒। केन॑। चि॒त्। नः॒। यत्। वः॒। आगः॑। पु॒रु॒षता॑। करा॑म ॥६२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमँ यज्ञमभि गृणीत विश्वे । मा हिँसिष्ट पितरः केनचिन्नो यद्वऽआगः पुरुषता कराम ॥
स्वर रहित पद पाठ
आच्येत्याऽअच्य। जानु। दक्षिणतः। निषद्य। निषद्येति निऽसद्य। इमम्। यज्ञम्। अभि। गृणीत। विश्वे। मा। हिꣳसिष्ट। पितरः। केन। चित्। नः। यत्। वः। आगः। पुरुषता। कराम॥६२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे विश्वे पितरः! यूयं केनचिद्धेतुना नो या पुरुषता तां मा हिंसिष्ट, यतो वयं सुखं कराम, यद्व आगस्तत् त्याजयेम,यूयमिमं यज्ञमभिगृणीत, वयमाच्य जानु दक्षिणतो निषद्य युष्मान् सततं सत्कुर्याम॥६२॥
पदार्थः
(आच्य) अधो निपात्य (जानु) (दक्षिणतः) दक्षिणपार्श्वतः (निषद्य) समास्य (इमम्) (यज्ञम्) सत्काराख्यम् (अभि) आभिमुख्ये (गृणीत) प्रशंसत (विश्वे) सर्वे (मा) (हिंसिष्ट) (पितरः) ज्ञानप्रदाः (केन) (चित्) (नः) अस्माकम् (यत्) (वः) (आगः) अपराधम् (पुरुषता) पुरुषस्य भावः (कराम) कुर्याम। अत्र विकरणव्यत्ययेन शप्॥६२॥
भावार्थः
येषां पितरो यदा सामीप्यमागच्छेयुः स्वयं वैतेषां निकटे समभिगच्छेयुस्तदा भूमौ जानुनी निपात्य नमस्कृत्यैतान् प्रसादयेयुः, पितरश्चाशीर्विद्यासुशिक्षोपदेशेन स्वसन्तानान् प्रसन्नान् कृत्वा सततं रक्षेयुः॥६२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे (विश्वे) सब (पितरः) पितृलोगो! तुम (केन, चित्) किसी हेतु से (नः) हमारी जो (पुरुषता) पुरुषार्थता है, उसको (मा, हिंसिष्ट) मत नष्ट करो, जिससे हम लोग सुख को (कराम) प्राप्त करें, (यत्) जो (वः) तुम्हारा (आगः) अपराध है, उसको हम छुड़ावें, तुम लोग (इमम्) इस (यज्ञम्) सत्कारक्रियारूप व्यवहार को (अभि, गृणीत) हमारे सन्मुख प्रशंसित करो, हम (जानु) जानु अवयव को (आच्य) नीचे टेक के (दक्षिणतः) तुम्हारे दक्षिण पार्श्व में (निषद्य) बैठ के तुम्हारा निरन्तर सत्कार करें॥६२॥
भावार्थ
जिनके पितृ लोग जब समीप आवें अथवा सन्तान लोग इन के समीप जावें, तब भूमि में घुटने टिका नमस्कार कर इनको प्रसन्न करें, पितर लोग भी आशीर्वाद, विद्या और अच्छी शिक्षा के उपदेश से अपने सन्तानों को प्रसन्न करके सदा रक्षा किया करें॥६२॥
विषय
उक्त पालक जनों का सभ्यतापूर्वक आसनों पर विराजना ।
भावार्थ
( जानु) गोड़े को (आच्य) संकोच कर सभ्यतापूर्वक (दक्षिणतः) दायें तरफ (निषद्य) बैठकर (इमम् ) इस (यज्ञम् ) यज्ञ, सब राष्ट्र को सुसंगत करने वाले प्रजापालक राजा को लक्ष्य करके (विश्वे) आप लोग सब(अभिगृणीत)अपना-अपना वक्तव्य प्रकट करो। हे (पितरः) प्रजा के पालक पुरुषो ! (यद्) जब हम (वः) आप लोंगों के प्रति ( पुरुषता = पुरुषतायाम् ) पुरुषार्थ करते हुए, वा सामान्य मनुष्य होने से (आग: ) अपराध भी ( कराम् ) कर दें । ( केनचित् ) किसी भी प्रकार से (नः) हमें (मा हिंसिष्ट ) मत मारो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंखो यामायनः । ६३–७१ पितरो देवताः । त्रिष्टुप् । धैवतः॥
विषय
यज्ञोपदेश
पदार्थ
१. (आच्याजानु) = घुटनों को परस्पर मिलाकर और (दक्षिणतः निषद्य) = दाहिनी ओर बैठकर (विश्वे) = हे पितरो ! आप सब (इमं यज्ञम्) = इस यज्ञ का (अभिगृणीत) = उपदेश दो । २. इन उपदेशों को सुननेवाले युवक सन्तान निवेदन करते हैं कि (पुरुषता) = मनुष्य होने के नाते, अर्थात् अल्पज्ञता के कारण स्खलनशील होने से [To err is human] (वः) = आपके विषय में (यत् आग:) = जो अपराध (कराम) = कर बैठें, उस ऐसे (केनचित्) = किसी अपराध से हे (पितर:) = पितरो ! आप (नः) = हमें (मा हिंसिष्ट) = हिंसित मत कीजिए। आपके प्रति व्यवहार में जो कमी - बेशी [अतिरिक्तता व न्यूनता] रह गई हो उसके लिए आप हमें क्षमा करना ।
भावार्थ
भावार्थ- - उपहूत पितर हमसे समादृत होकर हमें उत्तम कर्मों का उपदेश दें और हमारे व्यवहार में अज्ञानवश रह गई कमी को क्षमा करें।
मराठी (2)
भावार्थ
पिता व पुत्र जेव्हा एकमेकांच्या जवळ येतील तेव्हा पुत्राने भूमीवर गुडघे टेकून नमस्कार करावा व त्यांना प्रसन्न करून घ्यावे. पितरांनीही त्यांना आशीर्वाद द्यावा व विद्या आणि चांगल्या उपदेशाने संतानांना प्रसन्न करून सदैव त्यांचे रक्षण करावे.
विषय
पुन्हा तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (पुत्र आदी युवक वृद्धजनांना उद्देशून) हे (विश्वे) (पितरः) पितासमान वृद्धजनहो, आपण (केन, चित्) कोणत्याही प्रकारे (नः) आमच्या (पुरूषता) पुरूषार्थ-प्रवृत्ती (वा कार्याप्रत जो उत्साह आहे) त्याला (ना, हिंसिष्ट) नष्ट करूं नका (आम्हा करूणांना हतोत्साह करू नका, आमचा उत्साह वाढवा, की ज्यायोगे) आम्ही सुख व यश (कराम) प्राप्त करू. तसेच (वः) तुमचा (वा तुमच्या स्वभावात) (यत्) जी (आगः) अपराधवृत्ती (नैराश्य व राग) आहे, त्यापासून आम्हांस दूर ठेवा (आम्हाला रागवून निराश करू नका) आपण (इमम्) या (यज्ञम्) सत्काररूप यज्ञाची (अभि, गुणीत) आमच्यासमोर प्रशंसा करा (आपणास आम्ही केलेल्या सत्कारामुळे प्रसन्नता वाटली असेल, तर तसे सांगा, म्हणजे आमचा उत्साह दुरावेल) आम्ही (लहान मंडळी) (जानु) गुडघे) (आच्या) खाली भूमीवर टेकवून (नमस्कार करून) (दक्षिणतः) आपल्या दक्षिण बाजूला (विषय) बसतो आणि (अशाच प्रकारे पुढेही) नेहमी आपला सत्कार करीत राहू ॥62॥
भावार्थ
भावार्थ - जेव्हां पिता आदी पूज्य लोक संतानाकडे येतात अथवा संताने त्यांच्याकडे जातात, तेव्हां तरूणांनी जमिनीवर गुडघे टेकून त्यांना नमस्कार करावे. अशा (विनम्र आचरणाने) त्यांना आनंदित करावे. तसेच पितरांनीदेखील आशीर्वाद, विद्या आणि सुशिक्षा आदी उपदेश देऊन आपल्या संतानांना प्रसन्न करावे आणि सदा त्यांचे रक्षण करावे ॥62॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O ye all learned people, injure us not for any sin which w through human frailty have committed. Bowing with the bent knees and seated on the right we pay ye homage. Pray accept our respectful conduct.
Meaning
Noble seniors of the world, do not, for any reason whatever, destroy or injure our manliness and manpower. Take on this yajna for us, do it well and speak well of it. We sit kneeling on your right respectfully, and whatever your omission or commission in well-meaning work, we overlook and make up. And then we move on with the work in earnestness.
Translation
Being seated on the southern side with your knees bended, may all of you praise this sacrifice. O elders, do not harm us for any offence, which as human beings we might have committed. (1)
Notes
Ācyā jānu, जानु पातयित्वा, bending your knee. Abhigṛṇīta, प्रशंसत, praise it. Ägaḥ, अपराध:, offence; misbehaviour. Puruşată, पुरुषतया, as human beings; or due to manly ar rogance.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (বিশ্বে) সব (পিতরঃ) পিতৃগণ! তোমরা (কেন, চিৎ) কোন হেতু দ্বারা (নঃ) আমাদের যে (পুরুষতা) পুরুষার্থতা আছে তাহাকে (মা, হিংসিষ্ট) নষ্ট করিও না যাহাতে আমরা সুখ (করাম) প্রাপ্ত করি (য়ৎ) যাহা (বঃ) তোমাদের (আগঃ) অপরাধ তাহাকে আমরা ছাড়াইয়া দিই, তোমরা (ইমম্) এই (য়জ্ঞম্) সৎকার ক্রিয়ারূপ ব্যবহারকে (অভি, গৃণীত) আমাদের সম্মুখে প্রশংসিত কর । আমরা (জানু) জানু অবয়বকে (আচ্য) নীচে মুড়িয়া (দক্ষিণতঃ) তোমার দক্ষিণ পার্শ্বে (নিষদ্য) বসিয়া তোমার নিরন্তর সৎকার করিব ॥ ৬২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–পিতৃগণ যখন সমীপ আসিবে অথবা সন্তানগণ ইহাদের সমীপ যাইবে তখন ভূমিতে হাঁটু মুড়িয়া নমস্কার করিয়া ইহাদেরকে প্রসন্ন করিবে । পিতরগণও আশীর্বাদ বিদ্যা এবং উত্তম শিক্ষার উপদেশ দ্বারা স্বীয় সন্তানদেরকে প্রসন্ন রাখিয়া সর্বদা রক্ষা করিতে থাকিবে ॥ ৬২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
আচ্যা॒ জানু॑ দক্ষিণ॒তো নি॒ষদ্যে॒মং য়॒জ্ঞম॒ভি গৃ॑ণীত॒ বিশ্বে॑ ।
মা হি॑ꣳসিষ্ট পিতরঃ॒ কেন॑ চিন্নো॒ য়দ্ব॒ऽআগঃ॑ পুরু॒ষতা॒ করা॑ম ॥ ৬২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
আচ্যা জান্বিত্যস্য শঙ্খ ঋষিঃ । পিতরো দেবতা । নিচৃৎ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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