यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 6
ऋषिः - आभूतिर्ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - विराट् प्रकृतिः
स्वरः - धैवतः
125
कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यवं॑ चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑। इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नम॑ऽ उक्तिं॒ यज॑न्ति। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒श्विभ्यां॑ त्वा॒ सर॑स्वत्यै॒ त्वेन्द्रा॑य त्वा सु॒त्राम्ण॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒स्तेज॑से त्वा वी॒र्याय त्वा॒ बला॑य त्वा॥६॥
स्वर सहित पद पाठकु॒वित्। अ॒ङ्ग। यव॑मन्त॒ इति॒ यव॑ऽमन्तः। यव॑म्। चि॒त्। यथा॑। दान्ति॑। अ॒नु॒पू॒र्वमित्य॑नुऽपू॒र्वम्। वि॒यूयेति॑ वि॒ऽयूय॑। इ॒हेहेती॒हऽइ॒ह। ए॒षा॒म्। कृ॒णु॒हि॒। भोज॑नानि। ये। ब॒र्हिषः॑। नम॑उक्ति॒मिति॒ नमः॑ऽउक्तिम्। यज॑न्ति। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। त्वा॒। सर॑स्वत्यै। त्वा॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णे॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। तेज॑से। त्वा॒। वी॒र्या᳖य। त्वा॒। बला॑य। त्वा॒ ॥६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कुविदङ्ग यवमन्तो वयञ्चिद्यथा दान्त्यनुपूर्वँवियूय । इहेहैषाङ्कृणुहि भोजनानि ये बर्हिषो नमउक्तिँयजन्ति । उपयामगृहीतो स्यश्विभ्यान्त्वा सरस्वत्यै त्वेन्द्राय त्वा सुत्राम्णेऽएष ते योनिस्तेजसे त्वा वीर्याय त्वा बलाय त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
कुवित्। अङ्ग। यवमन्त इति यवऽमन्तः। यवम्। चित्। यथा। दान्ति। अनुपूर्वमित्यनुऽपूर्वम्। वियूयेति विऽयूय। इहेहेतीहऽइह। एषाम्। कृणुहि। भोजनानि। ये। बर्हिषः। नमउक्तिमिति नमःऽउक्तिम्। यजन्ति। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। त्वा। सरस्वत्यै। त्वा। इन्द्राय। त्वा। सुत्राम्ण इति सुऽत्राम्णे। एषः। ते। योनिः। तेजसे। त्वा। वीर्याय। त्वा। बलाय। त्वा॥६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
राजपुरुषैः किं कर्त्तव्यमित्याह॥
अन्वयः
हे अङ्ग! ये बर्हिषो यवमन्तः कृषीवला नमउक्तिं यजन्त्येषां पदार्थानामिहेह त्वं भोजनानि कृणुहि, यथैते यवं चिद् वियूयानुपूर्वं दान्ति, तथा त्वमेषां विभागेन कुवित् प्रापय यस्य ते तवैष योनिरस्ति, तं त्वाऽभ्रिभ्यां त्वा सरस्वत्यै त्वेन्द्राय सुत्राम्णे त्वा तेजसे त्वा वीर्याय त्वा बलाय ये यजन्ति, यैर्वा त्वमुपयामगृहीतोऽसि तैस्त्वं विहर॥६॥
पदार्थः
(कुवित्) बलम्। कुविदिति बलनामसु पठितम्॥ (निघं॰३.१) (अङ्ग) मित्र (यवमन्तः) बहवो यवा विद्यन्ते येषां ते (यवम्) यवादिधान्यम् (चित्) अपि (यथा) (दान्ति) छिन्दन्ति (अनुपूर्वम्) अनुकूलं प्रथमम् (वियूय) विभज्य (इहेह) अस्मिन् संसारे व्यवहारे च (एषाम्) कृषीवलानाम् (कृणुहि) कुरु (भोजनानि) पालनान्यभ्यवहरणानि वा (ये) (बर्हिषः) अन्नादिप्रापकाः (नमउक्तिम्) नमसामन्नादीनामुक्तिं वृद्धय उपदेशम् (यजन्ति) ददति (उपयामगृहीतः) कर्षकादिभिः स्वीकृतः (असि) (अश्विभ्याम्) द्यावापृथिवीभ्याम् (त्वा) त्वाम् (सरस्वत्यै) कृषिकर्मप्रचारिकायै वाचे (त्वा) (इन्द्राय) शत्रुविदारणाय (त्वा) (सुत्राम्णे) सुष्ठु रक्षित्रे (एषः) (ते) तव (योनिः) कारणम् (तेजसे) प्रागल्भ्याय (त्वा) (वीर्याय) पराक्रमाय (त्वा) (बलाय) (त्वा)॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये राजपुरुषाः कृष्यादिकर्मकर्तॄन् राज्ये करदातॄन् परिश्रमिणो जनाँश्च प्रीत्या रक्षन्त्युपदिशन्ति, तेऽस्मिन् संसारे सौभाग्यवन्तो भवन्ति॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
राजपुरुषों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (अङ्ग) मित्र! (ये) जो (बर्हिषः) अन्नादि की प्राप्ति कराने वाले (यवमन्तः) यवादि धान्ययुक्त किसान लोग (नमउक्तिम्) अन्नादि की वृद्धि के लिये उपदेश (यजन्ति) देते हैं, (एषाम्) उनके पदार्थों का (इहेह) इस संसार और इस व्यवहार में तू (भोजनानि) पालन वा भोजन आदि (कृणुहि) किया कर, (यथा) जैसे ये किसान लोग (यवम्) यव को (चित्) भी (वियूय) वुषादि से पृथक् कर (अनुपूर्वम्) पूर्वापर की योग्यता से (दान्ति) काटते हैं, वैसे तू इनके विभाग से (कुवित्) बड़ा बल प्राप्त कर, जिस (ते) तेरी उन्नति का (एषः) यह (योनिः) कारण है, उस (त्वा) तुझको (अश्विभ्याम्) प्रकाश-भूमि की विद्या के लिये (त्वा) तुझको (सरस्वत्यै) कृषिकर्म प्रचार करनेहारी उत्तम वाणी के लिये (त्वा) तुझको (इन्द्राय) शत्रुओं के नाश करने वाले (सुत्राम्णे) अच्छे रक्षक के लिये (त्वा) तुझ को (तेजसे) प्रगल्भता के लिये (त्वा) तुझ को (वीर्याय) पराक्रम के लिये (त्वा) तुझ को (बलाय) बल के लिये जो प्रसन्न करते हैं वा जिससे तू (उपयामगृहीतः) श्रेष्ठ व्यवहारों से स्वीकार किया हुआ (असि) है, उनके साथ तू विहार कर॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो राजपुरुष कृषि आदि कर्म करने, राज्य में कर देने और परिश्रम करने वाले मनुष्यों को प्रीति से रखते और सत्य उपदेश करते हैं, वे इस संसार में सौभाग्य वाले होते हैं॥६॥
विषय
अभिषिक्त के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( कुविदङ्ग ० सुत्राणे ) इस मन्त्र की व्याख्या देखो । अ० १० । ३२ ॥ (एष ते योनिः ) हे राजन् ! तेरा यह योनि आश्रयस्थान या पद है । (त्वा) तुझको (वीर्याय) वीर्य-सम्पादन, अधिकार - प्राप्ति और (बलाय ) - बलवृद्धि के लिये नियुक्त करता हूँ । शत० १२ । ७ । ३ । १३ ॥
टिप्पणी
पयोग्रहाः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इन्द्रः । विराट् प्रकृतिः । धैवतः ॥
विषय
तेज- वीर्य व बल
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार शरीर में सोम के संरक्षण के लिए सात्त्विक व सौम्य भोजन सर्वाधिक अपेक्षित है, अतः उसका उल्लेख करते हुए कहते हैं कि (कुविदङ्ग) हे प्रचुर शक्तियुक्त, सम्पूर्ण गति देनेवाले प्रभो ! (यवमन्तः) = जौ के खेतवाले (यथा) = जैसे (यवं चिद्यत्) = जौ को निश्चय से (अनुपूर्वम्) = क्रमशः (वियूय) = अलग करके (दान्ति) = काटते चलते हैं, इसी प्रकार प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि 'आभूति' भी एक-एक कोश को अलग करके पृथक् करते चलते हैं और उससे ऊपर उठते जाते हैं। २. हे प्रभो! (ये) = जो (बर्हिषः) = वासनाओं का उद्बर्हण करनेवाले (नमऽउक्तिम्) = आपके प्रति नमस्कार के कथन को (यजन्ति) = अपने साथ सङ्गत करते हैं (एषाम्) = इनके (इह-इह) = उस-उस योग की भूमिका में स्थित हुओं के भोजनानि-पालनों को अथवा उत्तम सात्त्विक भोजनों को (कृणुहि) = आप कीजिए। इन जौ आदि सात्त्विक भोजनों से ही ये शक्ति को प्राप्त करेंगे और वासनाओं का उद्बर्हण कर पाएँगे। ३. हे प्रभो! आप (उपयामगृहीतः असि) = उपासना के द्वारा यम-नियमों के पालन से गृहीत होते हैं। ४. (अश्विभ्यां त्वा) = प्राणापान की शक्ति की प्राप्ति के लिए मैं आपका स्वीकार करता हूँ। (सरस्वत्यै) = ज्ञान अधिदेवता के लिए, अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञानी बनने के लिए मैं आपका ग्रहण करता हूँ। (इन्द्राय त्वा) = आत्मशक्ति के विकास के लिए मैं आपका ग्रहण करता हूँ, (सुत्राम्णे) = जिससे मैं अपना उत्तम त्राण कर सकूँगा । ४. (एष:) = यह मैं (ते योनिः) = तेरा निवास स्थान बनता हूँ, अर्थात् अपने हृदय में आपको स्थापित करता हूँ। (तेजसे त्वा) = तेजस्विता की प्राप्ति के लिए आपको अपने में स्थापित करता हूँ। मेरा यह अन्नमयकोश अन्तर्निहित आपके द्वारा तेजस्वी बनाया जाता है। (वीर्याय त्वा) = वीर्य सम्पन्न होने के लिए मैं आपका स्वीकार करता हूँ। आपके द्वारा मेरा प्राणमयकोश उस वीर्यशक्तिवाला होता है जो शक्ति मुझे रोगों से आक्रान्त नहीं होने देती। (बलाय त्वा) = मानस बल की प्राप्ति के लिए मैं आपको स्वीकार करता हूँ। प्रभु के हृदयस्थ होने पर यह प्रभुभक्त अद्भुत मानस बल का लाभ करता है और उसके द्वारा सचमुच अपने कार्यों में सफल होता हुआ प्रभु का प्रिय होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम यव आदि सात्त्विक भोजनों से पवित्र विचारोंवाले होकर प्रभु का उपासन करें। वे प्रभु 'कुविदङ्ग' हैं, शक्तिशाली गति देनेवाले हैं। प्रभु के सम्पर्क से मैं भी तेज, वीर्य व बल को प्राप्त करता हूँ।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे राजपुरुष शेती करणाऱ्या, राज्याचा कर देणाऱ्या व परिश्रम करणाऱ्या लोकांशी प्रेमाने वागतात आणि सत्याचा उपदेश करतात ते या जगात भाग्यवान ठरतात.
विषय
राजपुरुषांनी काय केले पाहिजे, या विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (कोणी विद्वान, राजपुरुषाला उद्देशून म्हणाले आहे) हे (अङ्ग) मित्र विद्वान, (बर्हिषः) अन्न-धान्यादी पदार्थांची प्राप्ती करून देणारे (ये) जे (यवमन्तः) यव आदी धान्यांचा संग्रह करणारे कृषजन आहेत, ते (नमउक्तिम्) धान्याच्या वृद्धीविषयी आम्हाला-तुम्हाला (यजन्ति) उपदेश करतात वा महति सांगतात (एषाम्) त्यानी दिलेल्या पदार्थांचा तुम्ही (इहेह) या संसारात वा प्रापंचिक कार्यात (भोजनानि) भोजनासाठी वा परिवाराच्या पालन कर्मासाठी (कृणुहि) उपयोग करा. हे कृषक (यथा) ज्याप्रमाणे (यवम्) जव या धान्याला (चित्त) देखील (वियूय) भुसापासून वेगळे करून (अनुपूर्वम्) पूर्वापर पद्धतीने (एकानंतर एक याप्रमाणे) (दान्ति) काढतात, तद्वत तुम्ही या धान्याने (कुवित्) अधिक शक्ती प्राप्त करा कारण की (ते) तुमची उन्नतीचे (योनिः) कारण (एषः) हे धान्य (वा यापासून तयार झालेले अन्न आहे) हे राजपुरूष, (त्वा) तुम्हाला जे लोक (अश्विभ्याम्) प्रकाश आणि भूमी या विषयीचे ज्ञान देण्यासाठी आणि (त्वा) तुम्हाला (सरस्वत्यै) कृषिकर्म उत्कृष्टपणे करण्यास शिकविण्यासाठी (प्रयत्न करतात आणि या प्रकारे जे लोक तुम्हाला आनंदित करतात, त्यांच्याशी तुम्हीही उचित व्यवहार करा) तसेच (त्वा) तुम्हाला जे लोक (इन्द्राय) शत्रूंचा नाश करणारे असून (सुत्राम्णे) रक्षण करणारे आहेत आरि जे (त्वा) तुम्हाला (तेजसे) तेजस्वी करणारे आहेत (त्याच्याशी तुम्ही उचित व्यवहार करा.) तसेच जे लोक (त्वा) तुम्हाला (वीर्याय) पराक्रमी होण्यासाठी आणि (त्वा) तुम्हाला (बलाय) शक्तीमान होण्यासाठी प्रयत्न करतात व आनंदित करतात, तुम्ही देखील (उपयामगृहीतः) त्यांच्याशी श्रेष्ठ व्यवहार करा म्हणजे तेही तुमच्याशी तसे उचित आचरण करतील आणि तुम्ही (असि) देखील कृतज्ञ व्हाल. ॥6॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. जे राजपुरूष कृषी (वाणिज्य, उद्योग-धंदे) आदी कार्य करणारे आहेत. तसेच राज्याला कर देणारे आहेत आणि जे श्रम करणाऱ्या (मजूर, कारागीर, शिल्पी) आदी लोकांशी प्रेमाने वागतात, त्यांना योग्य तो उपदेश (सल्ला व मार्गदर्शन) करतात, ते राजपुरूष या जगात सौभाग्यशाली ठरतात. ॥6॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O Comrade, the agriculturists who produce food, instruct us how to grow more food. Protect and eat their produce in this world in a nice way. Just as these farmers reap in order the ripe barley and cleanse it by removing the chaff from it, so shouldst thou get strength by sharing their corn, which is the cause of thy growth. The agriculturists accept thee for thy knowledge of Heaven and Earth, for thy nice speech expatiating on the science of agriculture, for thy being a good guardian and extirpator of foes, for thy boldness, for thy bravery and for thy strength.
Meaning
O friend, ruler and administrator, those farmers who produce grain and harvest the crop for strength and sustenance, and those brilliant ones who, accordingly, study, analyse and pronounce their judgement on food production, for all these provide food and maintenance. Accepted and sanctified you are for the Ashvinis, earth and sunlight (for production), scientific knowledge, strength and power and defence and protection. This is your value and justification for life. I consecrate you for splendour, power and prowess, and solid strength.
Translation
O friend, as the farmers reap the plentiful barley crop in proper sequence, get meals prepared here itself for the people who in this sacrifice are chanting hymns of homage. (O curative extract), you have been duly accepted. You to the twin-healers. (1) You to the Doctress divine. (2) You to the resplendent one, the good protector. This is your abode. You for radiance; you for manly vigour; you for strength. (3)
Notes
Repeated from X. 32.
बंगाली (1)
विषय
রাজপুরুষৈঃ কিং কর্ত্তব্যমিত্যাহ ॥
রাজপুরুষদের কী করা উচিত এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (অঙ্গ) মিত্র! (য়ে) যাহারা (বর্হিষঃ) অন্নাদির প্রাপ্তিকারী (য়বমন্তঃ) যবাদি ধান্যযুক্ত কৃষক বর্গ (নমউক্তিম্) অন্নাদির বৃদ্ধি হেতু উপদেশ (য়জন্তি) প্রদান করে (এষাম্) তাহাদের পদার্থের (ইহৈহ) এই সংসার এবং এই ব্যবহারে তুমি (ভোজনানি) পালন বা ভোজনাদি (কৃণুহি) করিতে থাক (য়থা) যেমন এই কৃষকগণ (য়বম্) যবকে (চিৎ) ও (বিয়ূয়) দন্ড হইতে পৃথক করিয়া (অনুপূর্বম্) পূর্বাপর যোগ্যতা বলে (দান্তি) কর্ত্তন করে সেইরূপ তুমি ইহাদের বিভাগ দ্বারা (কুবিৎ) বৃহৎ বল প্রাপ্ত করিয়া যে (তে) তোমাদের উন্নতির (এষঃ) এই (য়োনিঃ) কারণ সেই (ত্বা) তোমাকে (অশ্বিভ্যাম্) প্রকাশ, ভূমির বিদ্যার জন্য (ত্বা) তোমাকে (সরস্বতৈঃ) কৃষিকর্ম প্রচারকারী উত্তম বাণীর জন্য (ত্বা) তোমাকে (ইন্দ্রায়) শত্রুদেরকে নাশকারী (সুত্রাম্ণে) উত্তম রক্ষক হেতু (ত্বা) তোমাকে (তেজসে) প্রগল্ভতার জন্য (ত্বা) তোমাকে (বীর্য়ায়) পরাক্রমের জন্য (ত্বা) তোমাকে (বলায়) বলহেতু যাহারা প্রসন্ন করে বা যদ্দ্বারা তুমি (উপয়ামগৃহীতঃ) শ্রেষ্ঠ ব্যবহার দ্বারা স্বীকৃত (অসি) আছো তাহাদিগের সহিত তুমি বিহার কর ॥ ৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ– এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যে সব রাজপুরুষ কৃষি আদি কর্ম করিতে, রাজ্যে কর দিতে এবং পরিশ্রমকারী মনুষ্যগণকে প্রীতিপূর্বক রাখিতে সচেষ্ট হয়েন এবং সত্য উপদেশ করেন তাহারা এই সংসারে সৌভাগ্যশালী হয় ॥ ৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
কু॒বিদ॒ঙ্গ য়ব॑মন্তো॒ য়বং॑ চি॒দ্যথা॒ দান্ত্য॑নুপূ॒র্বং বি॒য়ূয়॑ । ই॒হেহৈ॑ষাং কৃণুহি॒ ভোজ॑নানি॒ য়ে ব॒র্হিষো॒ নম॑ऽউক্তিং॒ য়জ॑ন্তি । উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতোऽস্য॒শ্বিভ্যাং॑ ত্বা॒ সর॑স্বত্যৈ॒ ত্বেন্দ্রা॑য় ত্বা সু॒ত্রাম্ণ॑ऽএ॒ষ তে॒ য়োনি॒স্তেজ॑সে ত্বা বী॒র্য়া᳖য় ত্বা॒ বলা॑য় ত্বা ॥ ৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
কুবিদঙ্গেত্যস্যাऽऽভূতির্ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । বিরাট্ প্রকৃতিশ্ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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