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यजुर्वेद अध्याय - 19

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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 35
    ऋषिः - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    63

    यदत्र॑ रि॒प्तꣳ र॒सिनः॑ सु॒तस्य॒ यदिन्द्रो॒ऽअपि॑ब॒च्छची॑भिः। अ॒हं तद॑स्य॒ मन॑सा शि॒वेन॒ सोम॒ꣳ राजा॑नमि॒ह भ॑क्षयामि॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। अत्र॑। रि॒प्तम्। र॒सिनः॑। सु॒तस्य॑। यत्। इन्द्रः॑। अपि॑बत्। शची॑भिः। अ॒हम्। तत्। अ॒स्य॒। मन॑सा। शि॒वेन॑। सोम॑म्। राजा॑नम्। इ॒ह। भ॒क्ष॒या॒मि॒ ॥३५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदत्र रिप्तँ रसिनः सुतस्य यदिन्द्रोऽअपिबच्छचीभिः । अहन्तदस्य मनसा शिवेन सोमँ राजानमिह भक्षयामि॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। अत्र। रिप्तम्। रसिनः। सुतस्य। यत्। इन्द्रः। अपिबत्। शचीभिः। अहम्। तत्। अस्य। मनसा। शिवेन। सोमम्। राजानम्। इह। भक्षयामि॥३५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 35
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैः सर्व आनन्दयितव्य इत्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यथाहमिहास्य सुतस्य रसिनो यदत्र रिप्तमस्तीन्द्रश्शचीभिर्यदपिबत्, तद् राजानं सोमं च शिवेन मनसा भक्षयामि, तथा यूयमपि भक्षयत॥३५॥

    पदार्थः

    (यत्) (अत्र) अस्मिन् संसारे (रिप्तम्) लिप्तं प्राप्तम्। अत्र लकारस्य रेफादेशः (रसिनः) प्रशस्त रसो विद्यते यस्मिंस्तस्य (सुतस्य) निष्पादितस्य (यत्) यम् (इन्द्रः) सूर्यः (अपिबत्) (शचीभिः) क्रियाभिः। शचीति कर्मनामसु पठितम्॥ (निघं॰२.१) (अहम्) (तत्) तम् (अस्य) (मनसा) (शिवेन) मङ्गलमयेन (सोमम्) ओषधीरसम् (राजानम्) देदीप्यमानम् (इह) (भक्षयामि)॥३५॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! यथा सूर्यः स्वकिरणैर्जलान्याकृष्य वर्षित्वा सर्वान् सुखयति, तथैवानुकूलाभिः क्रियाभी रसान् संसेव्य बलमुन्नीय यशोवृष्ट्या सर्वान् यूयमानन्दयत॥३५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों को चाहिये कि सब को आनन्द करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्य लोगो! जैसे (अहम्) मैं (इह) इस संसार में (अस्य) इस (सुतस्य) सिद्ध किये हुए (रसिनः) प्रशंसित रसयुक्त पदार्थ का (यत्) जो भाग (अत्र) इस संसार ही में (रिप्तम्) लिप्त=प्राप्त है वा (इन्द्रः) सूर्य्य (शचीभिः) आकर्षणादि कर्मों के साथ (यत्) जो (अपिबत्) पीता है, (तत्) उसको और (राजानम्) प्रकाशमान (सोमम्) ओषधियों के रस को (शिवेन) कल्याणकारक (मनसा) मन से (भक्षयामि) भक्षण करता और पीता हूं, वैसे तुम भी किया और पिया करो॥३५॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! जैसे सूर्य अपनी किरणों से जलों का आकर्षण कर और वर्षा से सबको सुखी करता है, वैसे ही अनुकूल क्रियाओं से रसों का सेवन अच्छे प्रकार करके बल को बढ़ा कीर्ति से सब को तुम लोग आनन्दित करो॥३५॥

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    विषय

    सैन्यबल की वृद्धि और उसका उपभोग ।

    भावार्थ

    ( अत्र ) इस राष्ट्र में ( रसिनः ) बलवान् ( सुतस्य ) अभिषिक्त राजा के (यत्) जिस ( रिप्तम् ) प्राप्त, क्रूर कर्म को (इन्द्रः) शत्रुनाशक सेनापति ने ( शचीभिः) अपनी शक्तिशाली सेनाओं द्वारा (अपिबत् ) स्वयं ग्रहण किया है (अहम् ) मैं प्रजाजन, एवं राष्ट्र के शासक वर्ग सब (तत्) उसको (शिवेन मनसा) कल्याणमय शुभ चित्त से ( अस्य ) इस राष्ट्र के ( राजानं सोमम् ) सर्वशासक, ऐश्वर्यवान् राज्य के रूप में (भक्षयामि ) भोग करता हूँ । अथवा, जो राष्ट्र का भाग प्रथम विजय के समय सेनापति के अधीन था जो पहले ऐश्वर्यांश सेना पर व्यय हो रहा था अब उसको विजय और अभिषेक के अनन्तर राजा को भोगने के लिये प्रदान करता हूँ । शत० १२ । ८ । १ । ५ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोमः । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    शची द्वारा सोमपान

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो (रसिन:) = रसवाले जीवन को माधुर्य से भरनेवाले सुतस्य अभिषुत (उत्पन्न) सोम का (रिप्तम्) = (लिप्तं प्राप्तम् द.) अंश प्राप्त हुआ है, (यत्) = जिस अंश को (इन्द्रः) = इन्द्रियों का विजेता जीवात्मा (शचीभिः) = ज्ञानों व कर्मों के द्वारा तथा प्रभुनाम जपन के द्वारा (अपिबत्) = अपने अन्दर पीता है, अर्थात् व्याप्त कर लेता है। २. स्पष्ट है कि सोम जीवन को मधुर बनानेवाला है [ रसिन: ], इसके अभाव में शरीर में रोग आ जाते हैं और मन में ईर्ष्या-द्वेष आदि पनपने लगते हैं, इस प्रकार मनुष्य का जीवन कड़वा हो जाता है । ३. इस सोम को शरीर में ही सुरक्षित रखने का साधन यह है कि मनुष्य यज्ञ-यागादि उत्तम कर्मों में लगा रहे और अपने अतिरिक्त समय को ज्ञान प्राप्ति में लगाये। [ शचीभिः] उससे भी श्रान्त हो जाने पर वाणी से प्रभु का नाम जपने में प्रवृत्त हो। ४. (अहम्) = मैं भी (अस्य) = इस सोम के (तत्) = उस अंश को (शिवेन मनसा) = शिव मन के हेतु से (भक्षयामि) = अपना भाग बनाता हूँ। इस सोम की रक्षा से मेरा मन शिव वृत्तिवाला बनता है, उसमें सभी के कल्याण की भावना उत्पन्न होती है । ५. वस्तुतः सोम के इन सब लाभों का विचार करके कि [क] यह मेरे जीवन को माधुर्यवाला बनाता है, [ख] इसके रक्षण से मेरा मन शिव बनता है, मैं (इह) = यहाँ मानव-जीवन में (सोमं राजानम्) = मेरे जीवन को दीप्त करनेवाले इस सोम को (भक्षयामि) = अपना भोजन बनाता हूँ। इसे अपने शरीर के अन्दर ही व्याप्त करने का प्रयत्न करता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ - १. सोमरक्षा का प्रकार यह है कि हम कर्मों में लगे रहें, ज्ञान प्राप्त करें और प्रभु के नाम का जप करें। २. रक्षित सोम [क] हमारे जीवन को मधुर बनाएगा, [ख] मन को शिव बनाएगा [रसिनः] तथा [ग] हमारे मस्तिष्क को ज्ञान- दीप्त करेगा [राजानम्] ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! सूर्य जसा आपल्या किरणांद्वारे जल आकर्षित करून वर खेचतो व परत पर्जन्यरूपाने वर्षाव करून सर्वांना सुखी करतो, तसेच योग्य प्रक्रिया करून रसांचे सेवन करून चांगल्या प्रकारे बल वाढवा व कीर्ती प्राप्त करून सर्वांना आनंदित करा.

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    विषय

    मनुष्यांनी सर्वांना आनन्दित केले पाहिजे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (सोमआदी ओषधींचा रस पान करणारी व्यक्ती इतरांना सांगत आहे) लोकहो, ज्याप्रमाणे (अहम्‌) मी (इह) या जगात (अस्य) या (औषधीपासून) (सुतस्य) काढलेल्या (रसिनः) प्रसशंसनीय (वा उपकारक) या रसयुक्त पदार्थांचे (सेवन करतो) की ज्या पदार्थाचा (यत्‌) जो भाग (अत्र) या संसारामध्येच (रिप्तम्‌) प्राप्त आहे (म्हणजे जगात रसयुक्त अशा पुष्कळ औषधी आहेत) तसेच (इन्द्रः) सूर्य (राचिभिः) आपल्या आकर्षणयुक्त किरणांद्वारे (यत्‌) ज्या (अपिबत्‌) रसांचे सेवन करतो (सूर्यदेखील पृथ्वीवरील वनस्पतींच्या जलाचे शोषण करतो) (तत्‌) त्या बलदायी रसांचे आणि (राजानम्‌) प्रकाशमान (वा सर्व रसांमधे जो श्रेष्ठ रस त्या (सोमम्‌) सोम औषधीच्या रसाचे मी (एक लाभदारी व्यक्ती) (शिवेन) त्या कल्याणकारी रसाचे (मनसा) मनःपूर्वक (पूर्ण आनंद गेत) (भक्षयामि) भक्षण करतो आणि पितो. हे मनुष्यांनो, तुम्हीही माझ्याप्रमाणे भक्षण करा आणि पान करा ॥35॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे मनुष्यांनो, ज्याप्रमाणे सूर्य आपल्या किरणांनी पृथ्वीवरील जलाचे आकर्षण करतो व नंतर वृष्टीद्वारे तेच जल पुन्हा पृथ्वीवर वर्णित करून सर्वांना सुखी करतो, त्याप्रमाणे तुम्हीदेखील (रसयुक्त पदार्थांवर) अनुकूल प्रक्रिया करून रस निष्पादित करा व त्याचे सेवन करा. याप्रमाणे आपली शक्ती, कीर्ती वाढवीत (सर्वांनाही ते रस देत) सर्वांना सुखी व आनंदित करा ॥35॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Whatever portion of this savoury fluid is clinging here, what the sun drank with his powers of attraction, I drink and feed on that brilliant Soma juice, with a pure mind.

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    Meaning

    Of the delicious and powerful soma juice of purest extraction available here, which the sun too draws up (and releases) with its rays, the soothing supreme and most inspiring part I drink with a happy and blessed mind here and now.

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    Translation

    Whatever portion of the pressed out delighting curejuice, that the resplendent self has drunk by his actions, is clinging here, that, with pure and unblemished thought, I drink here, which is the king of all medicines. (1)

    Notes

    Riptam, लिप्तं, is clinging here. Rasinaḥ, रसवत:, of the delightful; juicy. Sacibhiḥ, कर्मभि:, by his actions. Śivena manasã,शुद्धेन चित्तेन, with pure and unblemished thought or mind. Somam, cure-juice; juice of Soma plant.

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    बंगाली (1)

    विषय

    মনুষ্যৈঃ সর্ব আনন্দয়িতব্য ইত্যাহ ॥
    মনুষ্যদিগের উচিত যে, সকলে আনন্দ করুক এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন (অহম্) আমি (ইহ) এই সংসারে (অস্য) এই (সুতস্য) নিষ্পাদিত (রসিনঃ) প্রশংসিত রসযুক্ত পদার্থের (য়ৎ) যে ভাগ (অত্র) এই সংসারেই (রিপ্তম্) লিপ্ত প্রাপ্ত অথবা (ইন্দ্রঃ) সূর্য্য (শচীভিঃ) আকর্ষণাদি কর্ম সহ (য়ৎ) যে (অপিবৎ) পান করে (তৎ) সেইদিকে এবং (রাজানম্) প্রকাশমান (সোমম্) ওষধি সমূহের রসকে (শিবেন) কল্যাণকারক (মনসা) মন দ্বারা (ভক্ষয়ামি) ভক্ষণ করি এবং পান করি সেইরূপ তুমিও ভক্ষণ কর ও পান কর ॥ ৩৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন সূর্য্য তাহার কিরণ দ্বারা জলের আকর্ষণ করে এবং বর্ষা করিয়া সকলকে সুখী করে সেইরূপ অনুকূল ক্রিয়া দ্বারা রসের সেবন ভাল প্রকার করিয়া বলের বৃদ্ধি করিয়া কীর্ত্তি দ্বারা সবাইকে আনন্দিত কর ॥ ৩৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়দত্র॑ রি॒প্তꣳ র॒সিনঃ॑ সু॒তস্য॒ য়দিন্দ্রো॒ऽঅপি॑ব॒চ্ছচী॑ভিঃ ।
    অ॒হং তদ॑স্য॒ মন॑সা শি॒বেন॒ সোম॒ꣳ রাজা॑নমি॒হ ভ॑ক্ষয়ামি ॥ ৩৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়দত্রমিত্যস্য হৈমবর্চির্ঋষিঃ । সোমো দেবতা । বিরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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