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यजुर्वेद अध्याय - 19

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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 94
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - सरस्वती देवता छन्दः - विराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    82

    सर॑स्वती॒ योन्यां॒ गर्भ॑म॒न्तर॒श्विभ्यां॒ पत्नी॒ सुकृ॑तं बिभर्ति। अ॒पा रसे॑न॒ वरु॑णो॒ न साम्नेन्द्र॑ श्रि॒यै ज॒नय॑न्न॒प्सु राजा॑॥९४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर॑स्वती। योन्या॑म्। गर्भ॑म्। अ॒न्तः। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। पत्नी॑। सुकृ॑त॒मिति॒ सुऽकृ॑तम्। बि॒भ॒र्ति॒। अ॒पाम्। रसे॑न। वरु॑णः। न। साम्ना॑। इन्द्र॑म्। श्रि॒यै। ज॒नय॑न्। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। राजा॑ ॥९४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सरस्वती योन्याङ्गर्भमन्तरसरस्भ्याम्पत्नी सुकृतम्बिभर्ति । अपाँ रसेन वरुणो न साम्नेन्द्रँ श्रियै जनयन्नप्सु राजा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सरस्वती। योन्याम्। गर्भम्। अन्तः। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। पत्नी। सुकृतमिति सुऽकृतम्। बिभर्ति। अपाम्। रसेन। वरुणः। न। साम्ना। इन्द्रम्। श्रियै। जनयन्। अप्स्वित्यप्ऽसु। राजा॥९४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 94
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे योगिन्! यथा सरस्वती पत्नी स्वपत्युर्योन्यामन्तस्सुकृतं गर्भं बिभर्त्ति, यथा वा वरुणो राजाऽश्विभ्यामपां रसेनाप्सु साम्ना न सुखेनेन्द्रं श्रियै जनयन् विराजते, तथा त्वं भवेः॥९४॥

    पदार्थः

    (सरस्वती) विदुषी (योन्याम्) (गर्भम्) (अन्तः) आभ्यन्तरे (अश्विभ्याम्) अध्यापकोपदेशकाभ्याम् (पत्नी) (सुकृतम्) पुण्यात्मकम् (बिभर्त्ति) (अपाम्) जलानाम् (रसेन) (वरुणः) श्रेष्ठः (न) इव (साम्ना) सन्धिना (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (श्रियै) शोभायै (जनयन्) उत्पादयन् (अप्सु) प्राणेषु (राजा) प्रकाशमानः॥९४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा धर्मपत्नी पतिं शुश्रूषते, यथा च राजा सामादिभी राज्यैश्वर्यमुन्नयति, तथैव विद्वान् योगोपदेशकं संसेव्य योगाङ्गैर्योगसिद्धिमुन्नयेत्॥९४॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे योग करनेहारे पुरुष! जैसे (सरस्वती) विदुषी (पत्नी) स्त्री अपने पति से (योन्याम्) योनि के (अन्तः) भीतर (सुकृतम्) पुण्यरूप (गर्भम्) गर्भ को (बिभर्त्ति) धारण करती है वा जैसे (वरुणः) उत्तम (राजा) राजा (अश्विभ्याम्) अध्यापक और उपदेशक के साथ (अपाम्) जलों के (रसेन) रस से (अप्सु) प्राणों में (साम्ना) मेल के (न) समान सुख से (इन्द्रम्) ऐश्वर्य को (श्रियै) लक्ष्मी के लिये (जनयन्) प्रकट करता हुआ विराजमान होता है, वैसे तू हो॥९४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे धर्मपत्नी पति की सेवा करती है और जैसे राजा साम-दाम आदि से राज्य के ऐश्वर्य्य को बढ़ाता है, वैसे ही विद्वान् योग के उपदेशक की सेवा कर योग के अङ्गों की सिद्धियों को बढ़ाया करे॥९४॥

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    विषय

    स्त्री के गर्भ में बालक के धारण के समान प्रजा के बीच राजा का धारण ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( सरस्वती ) स्त्री (पत्नी) गृहपति होकर ( योन्याम् अन्तः ) योनिस्थान में ( सुकृतम् ) उत्तम रीति से स्थापित ( गर्भम् ) गर्भ को ( बिभर्त्ति ) धारण पोषण करती है, उसी प्रकार ( योन्याम् अन्तः) संगत होने या एकत्र होने के स्थान सभाभवन में (पत्नी) राष्ट्र का पालन करने वाली (सरस्वती) उत्तम ज्ञान वाली विद्वत्सभाः ( अश्विभ्याम्) राजा और प्रजा दोनों के लिये ( सुकृतम् ) उत्तम रूप से बनाये गये ( गर्भम् ) राष्ट्र के ग्रहण करने वाले राजा को ( बिभर्त्ति ) धारण करती है । और (वरुणः) स्वयं वरण किया पति जिस प्रकार (अपां रसेन) प्राणों के वीर्य से ( इन्द्रं जनयत् ) जीव, बालक को उत्पन्न करता है । वैसे ही ( वरुणः) समस्त प्रजा द्वारा चुना गया राजा, (अपां रसेन), आप्त पुरुषों के बल से (साना) और साम उपाय से (अप्सु) प्रजाओं में (श्रियै) लक्ष्मी की वृद्धि के लिये (इन्द्रम् ) ऐश्वर्यं रूप राष्ट्र को (जनयत्) उत्पन्न करता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अश्व्यादयः । सरस्वती देवता । विराट् पंक्तिः । पंचमः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी धर्मपत्नी पतीची सेवा करते व जसा राजा साम, दाम इत्यादींनी राज्याचे ऐश्वर्य वाढवितो तसे विद्वानांनी योगी लोकांची सेवा करून योगांगाने योगसिद्धी वाढवावी.

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    विषय

    पुनश्च, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ : हे योगसाधका पुरूषा, ज्याप्रमाणे एक (सरस्वती) विदुषी (पत्नी) आपल्या पतीकडून (वीर्याचा स्वीकार करून) (योन्याम्‌) (अन्तः) आपल्या योनीत (सुकृतम्‌) पुण्यस्वरूप (गर्भम्‌) गर्भ (बिभर्ति) धारण करते (त्याप्रमाणे तू देखील स्वतःमधे आत्मिक ऐश्वर्य धारण कर) तसेच ज्याप्रमाणे (वरूणः) एक उत्तम (राजा) राजा (अश्विभ्याम्‌) एका अध्यापक आणि एक उपदेशकांसह (अपाम्‌) जलच्या (वसेन) रसाचे (तसेच सृष्टीतील इतर रसांचे (अप्सु) आपल्या प्राणशक्तीमधे (साम्ना) मिश्रण करून ऐश्वर्य आणि लक्ष्मी (यश, कीर्ती) प्राप्त करतो (अध्यापकांच्या साहाय्याने यशस्वी होतो) आणि (जनयन्‌) त्या ऐश्वर्याची अधिकाधिक वृद्धी करतो, त्याप्रमाणे हे योगी पुरूषा, तू देखील यशस्वी व वृद्धिमान हो ॥94॥

    भावार्थ

    भावर्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे धर्मपत्नी आपल्या पतीची सेवा करते आणि एक राजा साम, दाम आदी उपायांद्वारे राज्याचे ऐश्वर्य वाढवितो, त्याप्रमाणे (राजाने वा अथवा विद्वानाने योगशिक्षकाची सेवा करून योगाच्या आठ अंगांचे प्रशिक्षण घ्यावे आणि योग सिद्धी प्राप्त करून त्यात वृद्धी करावी ॥94॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O yogi, just as an educated wife bears in her womb the nobly fashioned infant, and an excellent king with the help of the teacher and preacher and the spiritual force of the self-abnegating learned persons (Aptas) controlling the breaths manifests his sovereignty for wealth so shouldst thou do.

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    Meaning

    Sarasvati, the wife, bears inside the womb the foetus so well created by the Ashvinis, nature’s powers of creation, Varuna, supreme ruler, immanent in the world, integrating the soul with the vital essences of nature and completing the creation of a living Indra, the human being, for a glorious existence.

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    Translation

    The divine Doctress, the wife, bears the fortunate embryo in her womb for the twin healers. And the venerable Lord willingly begets the aspirant with rich essence of the waters in the flood for His great splendour. (1)

    Notes

    Patni, पत्नी भूत्वा, becoming a wife (to the Asvins). Yonyām antaḥ, within the womb. Garbham, the embryo. Apām rasena, with the essence of the waters. Sāmnă, peacefully; without any disturbance. Apsu rājā, lord of the waters. Being the lord of waters, He can control the water in the womb.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ– হে যোগকারী পুরুষ! যেমন (সরস্বতী) বিদুষী (পত্নী) স্ত্রী স্বীয়পতি দ্বারা (য়োন্যাম্) যোনির (অন্তঃ) ভিতর (সুকৃতম্) পুণ্যরূপ (গর্ভম্) গর্ভকে (বিভর্ত্তি) ধারণ করে বা যেমন (বরুণঃ) উত্তম (রাজা) রাজা (অশ্বিভ্যাম্) অধ্যাপক ও উপদেশক সহ (অপাম্) জলের (রসেন) রস দ্বারা (অপ্সু্) প্রাণসকলে (সাম্না) মিলনের (ন) সমান সুখ দ্বারা (ইন্দ্রম্) ঐশ্বর্য্যের (শ্রিয়ৈ) লক্ষ্মী হেতু (জনয়ন্) প্রকট করিয়া বিরাজমান হয়, সেইরূপ তুমিও হও ॥ ঌ৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন ধর্মপত্নী পতির সেবা করে এবং যেমন রাজা সাম-দামাদি দ্বারা রাজ্যের ঐশ্বর্য্যকে বৃদ্ধি করে সেইরূপ বিদ্বান্ যোগের উপদেশকের সেবা করিয়া যোগের অঙ্গের সিদ্ধি সকল বৃদ্ধি করিবে ॥ ঌ৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    সর॑স্বতী॒ য়োন্যাং॒ গর্ভ॑ম॒ন্তর॒শ্বিভ্যাং॒ পত্নী॒ সুকৃ॑তং বিভর্তি ।
    অ॒পাᳬं রসে॑ন॒ বর॑ুণো॒ ন সাম্নেন্দ্র॑ᳬं শ্রি॒য়ৈ জ॒নয়॑ন্ন॒প্সু রাজা॑ ॥ ঌ৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সরস্বতীত্যস্য শঙ্খ ঋষিঃ । সরস্বতী দেবতা । স্বরাট্ পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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