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यजुर्वेद अध्याय - 19

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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 95
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः
    102

    तेजः॑ पशू॒ना ह॒विरि॑न्द्रि॒याव॑त् परि॒स्रुता॒ पय॑सा सार॒घं मधु॑। अ॒श्विभ्यां॑ दु॒ग्धं भि॒षजा॒ सर॑स्वत्या सुतासु॒ताभ्या॑म॒मृतः॒ सोम॒ऽइन्दुः॑॥९५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तेजः॑। प॒शू॒नाम्। ह॒विः। इ॒न्द्रि॒याव॑त्। इ॒न्द्रि॒यव॒दिती॑न्द्रि॒यऽव॑त्। प॒रि॒स्रुतेति॑ प॒रि॒ऽस्रुता॑। पय॑सा। सा॒र॒घम्। मधु॑। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। दु॒ग्धम्। भि॒षजा॑। सर॑स्वत्या। सु॒ता॒सु॒ताभ्या॒मिति॑ सुतासु॒ताभ्या॑म्। अ॒मृतः॑। सोमः॑। इन्दुः॑ ॥९५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तेजः पशूनाँ हविरिन्द्रियावत्परिस्रुता पयसा सारघं मधु । अश्विभ्यान्दुग्धम्भिषजा सरस्वत्या सुतासुताभ्याममृतः सोम इन्दुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तेजः। पशूनाम्। हविः। इन्द्रियावत्। इन्द्रियवदितीन्द्रियऽवत्। परिस्रुतेति परिऽस्रुता। पयसा। सारघम्। मधु। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। दुग्धम्। भिषजा। सरस्वत्या। सुतासुताभ्यामिति सुतासुताभ्याम्। अमृतः। सोमः। इन्दुः॥९५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 95
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! याभ्यां सुताऽसुताभ्यां भिषजाऽश्विभ्यां पशूनां परिस्रुता पयसा तेज इन्द्रियावत् सारघं मधु हविर्दुग्धं सरस्वत्यामृतः सोम इन्दुश्चोत्पाद्यते, तौ योगसिद्धिं प्राप्नुतः॥९५॥

    पदार्थः

    (तेजः) प्रकाशः (पशूनाम्) गवादीनां सकाशात् (हविः) दुग्धादिकम् (इन्द्रियावत्) प्रशस्तानि इन्द्रियाणि भवन्ति यस्मिन् (परिस्रुता) परितः स्रवन्ति प्राप्नुवन्ति येन तत् (पयसा) दुग्धेन (सारघम्) सुस्वादुयुक्तम् (मधु) मधुरादिगुणोपेतम् (अश्विभ्याम्) विद्याव्यापिभ्याम् (दुग्धम्) पयः (भिषजा) वैद्यकविद्याविदौ (सरस्वत्या) विदुष्या स्त्रिया (सुतासुताभ्याम्) निष्पादिताऽनिष्पादिताभ्याम् (अमृतः) मृत्युधर्मरहितः (सोमः) ऐश्वर्यम् (इन्दुः) सुस्नेहयुक्तः॥९५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा गोपा गवादीन् पशून् संरक्ष्य दुग्धादिना संतुष्यन्ति, तथैव मनआदीन्द्रियाणि दुष्टाचारात् पृथक् संरक्ष्य योगिभिरानन्दितव्यमिति॥९५॥ अत्र सोमादिपदार्थगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वाध्यायार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जिन (सुतासुताभ्याम्) सिद्ध असिद्ध किये हुए (भिषजा) वैद्यक विद्या के जाननेहारे (अश्विभ्याम्) विद्या में व्याप्त दो विद्वान् (पशूनाम्) गवादि पशुओं के सम्बन्ध से (परिस्रुता) सब ओर से प्राप्त होने वाले (पयसा) दूध से (तेजः) प्रकाशरूप (इन्द्रियावत्) कि जिसमें उत्तम इन्द्रिय होते हैं, उस (सारघम्) उत्तम स्वादयुक्त (मधु) मधुर (हविः) खाने-पीने योग्य (दुग्धम्) दुग्धादि पदार्थ और (सरस्वत्या) विदुषी स्त्री से (अमृतः) मृत्युधर्मरहित नित्य रहने वाला (सोमः) ऐश्वर्य्य और (इन्दुः) उत्तम स्नेहयुक्त पदार्थ उत्पन्न किया जाता है, वे योगसिद्ध को प्राप्त होते हैं॥९५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे गौ के चराने वाले गोपाल लोग गौ आदि पशुओं की रक्षा करके दूध आदि से सन्तुष्ट होते हैं, वैसे ही मन आदि इन्द्रियों को दुष्टाचार से पृथक् संरक्षण करके योगी लोगों को आनन्दित होना चाहिये॥९५॥

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    विषय

    दूध और मधु के समान अभिषेक द्वारा राजा का दोहन ।

    भावार्थ

    जैसे ( पशुनाम् ) पशुओं को ( दुग्धम् ) दुहा गया दूध (हविः) खाने योग्य, (इन्द्रियावत् ) शरीर में बलकारक, (तेजः) तेज' उत्पन्न करता है । और जैसे (सारघं मधु) मधुमक्खियों से प्राप्त 'मधु'' (इन्द्रियवत् तेजः) बल और तेज को उत्पन्न करता है वैसे (अश्विभ्याम्) राष्ट्र के स्त्री-पुरुषों या मुख्य अधिकारियों ने और (सरस्वत्या) विद्वत्सभा ने मिलकर ( परिस्रता ) सब ओर से स्रवण करने वाले अभिषेक के (पयसा) जल से ( सुत-असुताभ्याम् ) अभिषिक्त राजाओं और अनभिषिक्त प्रजाओं से (अमृत) राष्ट्र के जीवन स्वरूप, अमर (इन्दुः) परमैश्वर्यवान् (सोमम्) सबका आज्ञापक राजा (दुग्धः) मानो दुहकर सर्वश्रेष्ठ रूप में प्राप्त किया है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अश्व्यादयः । अश्विनौ देवते । निचृज्जगती । निषादः ॥

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    विषय

    अमृत- सोम- इन्दु

    पदार्थ

    १. (पशूनाम्) = पशुओं के (तेज:) = तेजस्विता के कारणभूत दूध को मैं ग्रहण करूँ। वेद में अन्यन्त्र ‘पयः पशूनाम्' ही पाठ है, अतः यहाँ (तेजः) = व (पयः) = में कार्यकारणभाव होने से पयः के स्थान में तेजः का प्रयोग किया गया है। २. (हविः) = दानपूर्वक किया हुआ सात्त्विक भोजन, यज्ञशेषरूप पथ्य, (इन्द्रियावत्) = हमारे बल को (इन्द्रियं वीर्यम्) बढ़ानेवाला हो । ३. मैं (परिस्स्रुता) = परिपक्व अन्न के साथ तथा (पयसा) = दूध के साथ (सारघं मधु) = मैं मधुमक्षिकाओं से निर्मित शहद का ग्रहण करूँ। ४. (अश्विभ्याम्) = प्राणापान की शक्ति के लिए (दुग्धम्) = मैं अमृत दुग्ध (दूध) को स्वीकार करूँ। ५. इस प्राणापानरूप (भिषजा) = वैद्यों से (अमृत:) = मैं बनूँ, कभी रोगों का शिकार न होऊँ। ६. (सरस्वत्या) = ज्ञान की अधिदेवता से, अर्थात् अत्युत्तम ज्ञान से मैं (सोमः) = सौम्य बनूँ । ज्ञान का परिणाम तो है ही 'विनय'। यदि मैं विनीत न रहकर अभिमानी हो जाऊँगा तो मेरा सारा उत्थान समाप्त हो जाएगा। ७. (सुतासुताभ्याम्) = सुत व असुतों के द्वारा बड़े परिश्रम से भूमि में पैदा किये गये उत्तम सात्त्विक अन्नों के द्वारा [परिसुता] तथा असुत, अर्थात् गौ आदि के दूध के द्वारा यह (इन्दु:) = ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाला बनता है अथवा शक्तिशाली बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- पशुओं का दूध, यज्ञशेष अन्न व शहद के प्रयोग से मैं अमर-नीरोग बनूँ । बुद्धि की तीव्रता से ज्ञानी बनकर [विनीत बनूँ] । ठीक अन्नों का प्रयोग मुझे शक्तिशाली बनाये। यह ‘अमृत- सोम- इन्दु' ही राजा बनने के योग्य हैं। इस राजा के वर्णन से ही अगले अध्याय का प्रारम्भ होता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. गुरे राखणारे गुराखी जसे गाईंचे रक्षण करून दुधाने संतुष्ट होतात. तसे योग्यांनी मन इत्यादी इंद्रियांना दुष्ट आचरणापासून पृथक ठेवून आनंदित राहावे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (सुतासुताभ्याम्‌) सिद्ध (अर्थात्‌ तयार) आणि असिद्ध (कच्ची औषधी वनस्पती आदी) द्वारा (भिषजा) एक निष्णात वैद्य (सर्व गुण व प्रभाव प्राप्त करतो) तसेच (अश्विभ्याम्‌) दोन (वेगवेगळ्या शास्त्रांचे) विद्वान (पशूनाम्‌) गौ आदी पशूंपासून (परिस्रुता) प्राप्त होणाऱ्या (पयसा) दुधाद्वारे (तेजः) प्रकाश (वा शक्ती प्राप्त करतात) (इन्द्रियावत्‌) इन्द्रियांना शक्ती देणाऱ्या त्या (आरधम्‌) उत्तम स्वादु व (मधु) मधुर अशा (हविः) भोज्य वा खाद्य पदार्थांपासून (दुग्धम्‌) आणि दुधापासून (सरस्वत्या) एक विदुषी स्त्री (अमृतः) मृत्युपासून रक्षण करणारे (सोमः) ऐश्वर्य प्राप्त करते आणि (इन्दुः) उत्तम स्नेहयुक त पदार्थ (दही, लोणी, तूप आदी) निर्माण करते, तद्वत हे योगसाधका, तुम्ही देखील योगसिद्धी प्राप्त करू शकता ॥95॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे गौचारक गोपालक लोक गौ आदी पशूंचे रक्षण करून दुध आदी पदार्थ प्राप्त करतात आणि परम समाधानी असतात, त्याच प्रमाणे योगीजनांनीदेखील आपल्या मन आणि इन्द्रियाना दुराचारापासून दूर ठेवावे आणि परमानंदात रहावे (हेच त्यांच्याकरिता कल्याणकारी आहे) ॥95॥

    टिप्पणी

    या अध्यायात सोम आदी पदार्थांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या अध्यायाची संगती पूर्वीच्या (अठराव्या) अध्यायाशी त्याच्या अर्थाशी आहे, असे जाणावे.^यजुर्वेदाचा एकोणिसावा अध्याय (मराठी अनुवादासह) समाप्त

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The ghee of animals is eatable and giver of physical strength. The juice of medicines and delicious sugar mixed with milk also add to physical strength. The water yielded by two efficacious agencies, the sun and moon and lightning is also invigorating. The pressed and unpressed medicinal Soma juice acts like nectar.

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    Meaning

    The healthy glow of living forms, the mighty rich nourishments of life, the delicious honey collected by the bee from juices all round are the nectar, the vital power, the beauty distilled from the original as well as the refined sources of nature by Sarasvati, mother spirit of life and humanity through the Ashvinis, creative and healing powers of nature’s cosmic flow.

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    Translation

    The twin-healers and the divine Doctress procure for the aspirant the vigour of the animals, strength-giving sacrificial food, well-strained drink, milk, pure bee-honey and delighting nectar from pressed and unpressed cure-juice plant. (1)

    Notes

    Bhisaja, भिषजौ, the two Asvins; physicians and sur geons. Sarasvatya, सरस्वत्या सह, alongwith Sarasvati, the divine Doctress. Tejaḥ, बलं, vigour. Indriyāvat, strength-giving Parisrutā, strained or filtered drink. Sāragham madhu, bee-honey. Induḥ, आह्लादक:, delighting.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যে সব (সুতাসুতাভ্যাম্) সিদ্ধ অসিদ্ধ কৃত (ভিষজা) বৈদ্যক বিদ্যার জ্ঞাতা (অশ্বিভ্যাম্) বিদ্যায় ব্যাপ্ত দুই বিদ্বান্ (পশূনাম্) গবাদি পশুগুলির সম্পর্ক দ্বারা (পরিস্রুতা) সকল দিক দিয়া প্রাপ্ত হওয়ার (পয়সা) দুগ্ধ দ্বারা (তেজঃ) প্রকাশরূপ (ইন্দ্রিয়াবৎ) যাহাতে উত্তম ইন্দ্রিয় হয় সেই (সারধম্) উত্তম স্বাদযুক্ত (মধু) মধুর (হবিঃ) পানাহারের যোগ্য (দুগ্ধম্) দুগ্ধাদি পদার্থ এবং (সরস্বত্যা) বিদুষী স্ত্রী দ্বারা (অমৃতঃ) মৃত্যুধর্মরহিত নিত্য নিবাসী (সোমঃ) ঐশ্বর্য্য (ইন্দুঃ) এবং উত্তম স্নেহযুক্ত পদার্থ উৎপন্ন করা হয়, তাহারা যোগসিদ্ধি প্রাপ্ত হয় ॥ ঌ৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন গাভি চারণকারী গোপালগণ গাভি আদি পশুদিগের রক্ষা করিয়া দুগ্ধাদি দ্বারা সন্তুষ্ট হয় সেইরূপ মনাদি ইন্দ্রিয়কে দুষ্টাচার হইতে পৃথক সংরক্ষণ করিয়া যোগী লোকদিগকে আনন্দিত হওয়া উচিত ॥ ঌ৫ ॥
    এই অধ্যায়ে সোমাদি পদার্থসকলের বর্ণনা করিলে এই অধ্যায়ের অর্থের পূর্ব অধ্যায়ের অর্থের সহ সংগতি জানা উচিত ॥
    ইতি শ্রীমৎপরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়াণাং পরমবিদুষাং শ্রীয়ুতবিরজানন্দসরস্বতীস্বামিনাং শিষ্যেণ পরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়েণ শ্রীমদ্দয়ানন্দসরস্বতীস্বামিনা নির্মিতে সুপ্রমাণয়ুক্তে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে য়জুর্বেদভাষ্যে একোনবিংশতিতমোऽধ্যায়ঃ পূর্ত্তিমগাৎ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    তেজঃ॑ পশূ॒নাᳬं হ॒বিরি॑ন্দ্রি॒য়াব॑ৎ পরি॒স্রুতা॒ পয়॑সা সার॒ঘং মধু॑ । অ॒শ্বিভ্যাং॑ দু॒গ্ধং ভি॒ষজা॒ সর॑স্বত্যা সুতাসু॒তাভ্যা॑ম॒মৃতঃ॒ সোম॒ऽইন্দুঃ॑ ॥ ঌ৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    তেজ ইত্যস্য শঙ্খ ঋষিঃ । অশ্বিনৌ দেবতে । নিচৃজ্জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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