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  • यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 14
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - राजेश्वरौ देवते छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः
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    म॒न्यवे॑ऽयस्ता॒पं क्रोधा॑य निस॒रं योगा॑य यो॒क्तार॒ꣳ शोका॑याऽभिस॒र्त्तारं॒ क्षेमा॑य विमो॒क्ता॑रमुत्कूलनिकू॒लेभ्य॑त्रि॒ष्ठिनं॒ व॑पुषे मानस्कृ॒तꣳ शीला॑याञ्जनीका॒रीं निर्ऋत्यै कोशका॒रीं य॒माया॒सूम्॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒न्यवे॑। अ॒य॒स्ता॒पमित्य॑यःऽता॒पम्। क्रोधा॑य। नि॒स॒रमिति॑ निऽस॒रम्। योगा॑य। यो॒क्ता॑रम्। शोका॑य। अ॒भि॒स॒र्त्तार॒मित्य॑भिऽस॒र्त्तार॑म्। क्षेमा॑य। वि॒मोक्तार॒मिति॑ विऽमोक्तार॑म्। उ॒त्कू॒ल॒नि॑कू॒लेभ्य इत्यु॑त्कूलऽनिकू॒लेभ्यः॑। त्रि॒ष्ठिन॑म्। त्रि॒स्थिन॒मिति॑ त्रि॒ऽस्थिन॑म्। वपु॑षे। मा॒न॒स्कृ॒तम्। मा॒नः॒ऽकृ॒तमिति॑। मानःऽकृ॒तम्। शीला॑य। आ॒ञ्ज॒नी॒का॒रीमित्या॑ञ्जनीऽका॒रीम्। निर्ऋ॑त्या॒ इति॒ निःऽऋ॑त्यै। को॒श॒का॒रीमिति॑ कोशऽका॒रीम्। य॒माय॑। अ॒सूम् ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मन्यवे यस्तापङ्क्रोधाय निसरँयोगाय योक्तारँ शोकायाभिसर्तारङ्क्षेमाय विमोक्तारमुत्कूलनिकूलेभ्यस्त्रिष्ठिनँवपुषे मानस्कृतँ शीलायाञ्जनीकारीन्निरृत्यै कोशकारीँयमायासूम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मन्यवे। अयस्तापमित्ययःऽतापम्। क्रोधाय। निसरमिति निऽसरम्। योगाय। योक्तारम्। शोकाय। अभिसर्त्तारमित्यभिऽसर्त्तारम्। क्षेमाय। विमोक्तारमिति विऽमोक्तारम्। उत्कूलनिकूलेभ्य इत्युत्कूलऽनिकूलेभ्यः। त्रिष्ठिनम्। त्रिस्थिनमिति त्रिऽस्थिनम्। वपुषे। मानस्कृतम्। मानःऽकृतमिति। मानःऽकृतम्। शीलाय। आञ्जनीकारीमित्याञ्जनीऽकारीम्। निर्ऋत्या इति निःऽऋत्यै। कोशकारीमिति कोशऽकारीम्। यमाय। असूम्॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 30; मन्त्र » 14
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ–হে জগদীশ্বর বা সভাপতে রাজন্! আপনি (মন্যবে) আন্তর্য ক্রোধের জন্য প্রবৃত্ত (অয়স্তাপম্) লৌহ বা সুবর্ণ তাপনকারীকে (ক্রোধায়) বাহ্য ক্রোধের জন্য প্রবৃত্ত (নিসরম্) নিশ্চিত গমনকারীকে (শোকায়) শোকের জন্য প্রবৃত্ত (অভিসর্ত্তারম্) সম্মুখ গমনরতকে এবং (য়মায়) দন্ড দিবার জন্য প্রবৃত্ত (অসূম্) ক্রোধে ইতস্ততঃ হস্ত নিক্ষেপকারীকে দূর করুন এবং (যোগায়) যোগাভ্যাসের জন্য (য়োক্তারম্) যোগকারীকে (ক্ষেমায়) রক্ষার জন্য (বিমোক্তারম্) দুঃখ হইতে মুক্তি প্রদানকারীকে (উৎকূলনিকূলেভ্যঃ) উপর নীচে কিনারার উপর আরোহণ অবরোহণ করিবার জন্য (ত্রিষ্ঠিনং) জল স্থল ও আকাশে স্থিত বিমানাদি যানে যুক্ত পুরুষকে (বপুষে) শরীররহিতের জন্য (মানস্কৃতম্) মন দ্বারা কৃত বিচারে প্রবীণকে (শীলায়) জিতেন্দ্রিয়তাদি উত্তম স্বভাব সম্পন্নের জন্য (আঞ্জনীকারীম্) প্রসিদ্ধ ক্রিয়াগুলি সম্পন্নকারিণী স্বভাব যুক্ত স্ত্রীকে এবং (নিরৃত্যৈ) ভূমির জন্য (কোশকারীম্) কোশের সঞ্চয়কারিণী স্ত্রীকে উৎপন্ন বা প্রকট করুন ॥ ১৪ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ–হে রাজাদি মনুষ্যগণ! যাহারা তপ্তলৌহ সদৃশ ক্রোধ প্রাপ্ত অপরকে দুঃখ প্রদানকারী এবং ধর্ম নিয়মকে বিনাশকারী হইবে, তাহাদের দন্ড দিয়া যোগাভ্যাসকারীদের সৎকার করিয়া সকল স্থানে যান চালনাকারীকে একত্রিত করিয়া তোমাদের যথাবৎ সুখ বৃদ্ধি করা উচিত ॥ ১৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - ম॒ন্যবে॑ऽয়স্তা॒পং ক্রোধা॑য় নিস॒রং য়োগা॑য় য়ো॒ক্তার॒ꣳ শোকা॑য়াऽভিস॒র্ত্তারং॒ ক্ষেমা॑য় বিমো॒ক্তার॑মুৎকূলনিকূ॒লেভ্য॑স্ত্রি॒ষ্ঠিনং॒ বপু॑ষে মানস্কৃ॒তꣳ শীলা॑য়াঞ্জনীকা॒রীং নির্ঋ॑ত্যৈ কোশকা॒রীং য়॒মায়া॒সূম্ ॥ ১৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - মন্যব ইত্যস্য নারায়ণ ঋষিঃ । রাজেশ্বরৌ দেবতে । নিচৃদত্যষ্টিশ্ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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