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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 1

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - यज्ञः, चन्द्रमाः छन्दः - पथ्या बृहती सूक्तम् - यज्ञ सूक्त

    संसं॑ स्रवन्तु न॒द्यः सं वाताः॒ सं प॑त॒त्रिणः॑। य॒ज्ञमि॒मं व॑र्धयता गिरः संस्रा॒व्येण ह॒विषा॑ जुहोमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्। सम्। स्र॒व॒न्तु॒। न॒द्यः᳡। सम्। वाताः॑। सम्। प॒त॒त्रिणः॑। य॒ज्ञम्। इ॒मम्। व॒र्ध॒य॒त॒। गि॒रः॒। स॒म्ऽस्रा॒व्ये᳡ण। ह॒विषा॑। जु॒हो॒मि॒ ॥१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संसं स्रवन्तु नद्यः सं वाताः सं पतत्रिणः। यज्ञमिमं वर्धयता गिरः संस्राव्येण हविषा जुहोमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। सम्। स्रवन्तु। नद्यः। सम्। वाताः। सम्। पतत्रिणः। यज्ञम्। इमम्। वर्धयत। गिरः। सम्ऽस्राव्येण। हविषा। जुहोमि ॥१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 1; मन्त्र » 1

    टिप्पणीः - यह मन्त्र कुछ भेद से आ चुका है-अ० १।१५।१ ॥ इस सूक्त का मिलान करो-अ० १।१५ ॥ १−(सम् सम्) अभ्यासे भूयांसमर्थं मन्यन्ते-निरु० १०।४२। अत्यन्तसम्यक्। अत्यनुकूलाः (स्रवन्तु) वहन्तु (नद्यः) सरितः (सम् सम्) अत्यनुकूलाः (वाताः) विविधपवनाः (पतत्रिणः) पक्षिणः (यज्ञम्) देवपूजासंगतिकरणदानव्यवहारम् (वर्धयत) समृद्धं कुरुत (गिरः) गीर्यन्ते स्तूयन्त इति गिरः, कर्मणि-क्विप्। हे स्तूयमाना विद्वांसः (संस्राव्येण) स्रु गतौ−ण। तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। संस्राव−यत्। संस्रावेण सम्यक् स्रवणेन आर्द्रभावेन युक्तेन (हविषा) आत्मदानेन। भक्त्या (जुहोमि) अहमाददे। स्वीकरोमि युष्मान् ॥

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