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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 1

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - यज्ञः, चन्द्रमाः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - यज्ञ सूक्त

    रू॒पंरू॑पं॒ वयो॑वयः सं॒रभ्यै॑नं॒ परि॑ ष्वजे। य॒ज्ञमि॒मं चत॑स्रः प्र॒दिशो॑ वर्धयन्तु संस्रा॒व्येण ह॒विषा॑ जुहोमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रू॒पम्ऽरू॑पम्। वयः॑ऽवयः। स॒म्ऽरभ्य॑। ए॒न॒म्। परि॑। स्व॒जे॒। य॒ज्ञम्। इ॒मम्। चत॑स्रः। प्र॒ऽदिशः॑। व॒र्ध॒य॒न्तु॒। स॒म्ऽस्रा॒व्ये᳡ण। ह॒विषा॑। जु॒हो॒मि॒ ॥१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रूपंरूपं वयोवयः संरभ्यैनं परि ष्वजे। यज्ञमिमं चतस्रः प्रदिशो वर्धयन्तु संस्राव्येण हविषा जुहोमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रूपम्ऽरूपम्। वयःऽवयः। सम्ऽरभ्य। एनम्। परि। स्वजे। यज्ञम्। इमम्। चतस्रः। प्रऽदिशः। वर्धयन्तु। सम्ऽस्राव्येण। हविषा। जुहोमि ॥१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 1; मन्त्र » 3

    टिप्पणीः - इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध कुछ भेद से आ चुका है-अ० १।२२।३ ॥ ३−(रूपंरूपम्) अ० १।२३।३। सर्वसौन्दर्य्यम् (वयोवयः) अ० १।२२।३। सर्वसामर्थ्यम् (संरभ्य) गृहीत्वा (एनम्) विद्वांसम् (परि) सर्वतः (स्वजे) ष्वञ्ज परिष्वङ्गे। आलिङ्गयामि (यज्ञम्) (इमम्) (चतस्रः) (प्रदिशः) प्राच्यादयो महादिशः (वर्धयन्तु) समर्धयन्तु। अन्यत् पूर्ववत्-म० १ ॥

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