यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 16
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
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तान् पूर्व॑या नि॒विदा॑ हूमहे व॒यं भगं॑ मि॒त्रमदि॑तिं॒ दक्ष॑म॒स्रिध॑म्।अ॒र्य॒मणं॒ वरु॑ण॒ꣳ सोम॑म॒श्विना॒ सर॑स्वती नः सु॒भगा॒ मय॑स्करत्॥१६॥
स्वर सहित पद पाठतान्। पूर्व॑या। नि॒विदेति॑ नि॒ऽविदा॑। हू॒म॒हे॒। व॒यम्। भग॑म्। मि॒त्रम्। अदि॑तिम्। दक्ष॑म्। अ॒स्रिध॑म्। अ॒र्य॒मण॑म्। वरु॑णम्। सोम॑म्। अ॒श्विना॑। सर॑स्वती। नः॒। सु॒भगेति॑ सु॒ऽभगा॑। मयः॑। क॒र॒त्॥१६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तान्पूर्वया निविदा हूमहे वयम्भगम्मित्रमदितिन्दक्षमस्रिधम् । अर्यमणँवरुणँ सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
तान्। पूर्वया। निविदेति निऽविदा। हूमहे। वयम्। भगम्। मित्रम्। अदितिम्। दक्षम्। अस्रिधम्। अर्यमणम्। वरुणम्। सोमम्। अश्विना। सरस्वती। नः। सुभगेति सुऽभगा। मयः। करत्॥१६॥
विषय - देव-हूति
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में देवों की मित्रता प्राप्त करने की प्रार्थना थी। उन्हीं देवों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि (तान्) = उन देवों को पूर्वया सृष्टि के आरम्भ में दी गई (निविदा) = [निविदा इति वाङ् नाम - नि० १।११ ] इस निश्चयात्मक ज्ञान देनेवाली वेदवाणी के हेतु से (वयम्) = हम (हूमहे) = पुकारते हैं, अर्थात् इन विद्वानों को हम इसलिए समीप प्राप्त करना चाहते हैं कि ये हमें उत्तम वेदज्ञान प्राप्त करानेवाले हों। २. किन देवों को? [क] (भगम्) =' ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान व वैराग्यरूप भग से युक्त को [ख] (मित्रम्) = [मिद् स्नेहने] सबके साथ स्नेह करनेवाले को तथा [प्रमीते: त्रायते] पाप से बचानेवाले को [ग] (अदितिम्) = अदीनभाव से युक्त होकर दिव्य गुणों का अपने में निर्माण करनेवाले को अथवा किसी का खण्डन व हिंसन न करनेवाले को [अदीना देवमाता- नि०, न दितिः यस्मात्] [घ] (दक्षम्) = कार्यकुशल को, कर्मयोगी को [ङ] (अस्त्रिधम्) = न स्स्रेधते। कभी सद्भाव को नष्ट न होने देनेवाले को [च] (अर्यमणम्) = 'अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति = सदा दानशील को [छ] (वरुणम्) = द्वेष का निवारण करनेवाले अतएव श्रेष्ठ को [ज] (सोमम्) = सौम्य स्वभाववाले शान्त को [झ] (अश्विना) = प्राणापानशक्तिसम्पन्न को अथवा सूर्य-चन्द्र के गुणधर्मों से युक्त को । सूर्य के समान प्रकाशमय तथा चन्द्र के समान आनन्दमय को ३. इन सब देवों को तो हम बुलाते ही हैं। इनके साथ सतत सम्पर्क होने पर (सुभगा) = सब उत्तम भगों को प्राप्त करानेवाली (सरस्वती) = ज्ञानाधिदेवता (नः) = हमारा (मयस्करत्) = कल्याण करे। देवों के सम्पर्क में रहने से से हमारा हमारा ज्ञान बढ़ता है, उस ज्ञानवृद्धि कल्याण होता है।
भावार्थ - भावार्थ- हम देवों के सम्पर्क में आकर उनसे ज्ञान प्राप्त करें जो हमारा कल्याण करे।
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