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  • यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 12
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - विराट् संकृतिः स्वरः - गान्धारः
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    भायै॑ दार्वा॒हारं प्र॒भाया॑ऽअग्न्ये॒धं ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टपा॑याभिषे॒क्तारं॒ वर्षिष्ठाय॒ नाका॑य परिवे॒ष्टारं॑ देवलो॒काय॑ पेशि॒तारं॑ मनुष्यलो॒काय॑ प्रकरि॒तार॒ꣳ सर्वे॑भ्यो लो॒केभ्य॑ऽउपसे॒क्तार॒मव॑ऽऋत्यै व॒धायो॑पमन्थि॒तारं॒ मेधा॑य वासः पल्पू॒लीं प्र॑का॒माय॑ रजयि॒त्रीम्॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भायै॑। दा॒र्वा॒हा॒रमिति॑ दारुऽआहा॒रम्। प्र॒भाया॒ इति॑ प्र॒ऽभायै॑। अ॒ग्न्ये॒धमित्य॑ग्निऽए॒धम्। ब्र॒ध्नस्य॑। वि॒ष्टपा॑य। अ॒भि॒षे॒क्तार॑म्। अ॒भि॒से॒क्तार॒मित्य॑भिऽसे॒क्तार॑म्। वर्षि॑ष्ठाय। नाका॑य। प॒रि॒वे॒ष्टार॒मिति॑ परिऽवे॒ष्टार॑म्। दे॒व॒लो॒कायेति॑ देवऽलो॒काय॑। पेशि॒तार॑म्। म॒नु॒ष्य॒लो॒कायेति॑ मनुष्यऽलो॒काय॑। प्र॒क॒रि॒तार॒मिति॑ प्रऽकरि॒तार॑म्। सर्वे॑भ्यः। लो॒केभ्यः॑। उ॒प॒से॒क्तार॒मित्यु॑पऽसे॒क्ता॑रम्। अव॑ऽऋत्या॒ इत्यव॑ऽऋत्यै। व॒धाय॑। उ॒प॒म॒न्थि॒तार॒मित्यु॑पऽमन्थि॒ता॑रम्। मेधा॑य। वा॒सः॒प॒ल्पू॒लीमिति॑ वासःऽपल्पू॒लीम्। प्र॒का॒मायेति॑ प्रऽका॒माय॑। र॒ज॒यि॒त्रीम् ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भायै दार्वाहारम्प्रभायाऽअग्न्येधम्ब्रध्नस्य विष्टपायाभिषेक्तारँवर्षिष्ठाय नाकाय परिवेष्टारन्देवलोकाय पेशितारम्मनुष्यलोकाय प्रकरितारँ सर्वेभ्यो लोकेभ्योऽउपसेक्तारमवऋत्यै बधायोपमन्थितारम्मेधाय वासःपल्पूलीम्प्रकामाय रजयित्रीम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    भायै। दार्वाहारमिति दारुऽआहारम्। प्रभाया इति प्रऽभायै। अग्न्येधमित्यग्निऽएधम्। ब्रध्नस्य। विष्टपाय। अभिषेक्तारम्। अभिसेक्तारमित्यभिऽसेक्तारम्। वर्षिष्ठाय। नाकाय। परिवेष्टारमिति परिऽवेष्टारम्। देवलोकायेति देवऽलोकाय। पेशितारम्। मनुष्यलोकायेति मनुष्यऽलोकाय। प्रकरितारमिति प्रऽकरितारम्। सर्वेभ्यः। लोकेभ्यः। उपसेक्तारमित्युपऽसेक्तारम्। अवऽऋत्या इत्यवऽऋत्यै। वधाय। उपमन्थितारमित्युपऽमन्थितारम्। मेधाय। वासःपल्पूलीमिति वासःऽपल्पूलीम्। प्रकामायेति प्रऽकामाय। रजयित्रीम्॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 30; मन्त्र » 12
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    पदार्थ -
    ७१. (भायै) = अग्नि के लिए (दार्वाहारम्) = लकड़हारे को प्राप्त करे। घर में अग्नि के लिए मुख्य साधन लकड़ी ही है। कोयला भी लकड़ी से ही तैयार होता है। ७२. (प्रभायै) = उस (अग्न्येधम्) = प्रभा के लिए, विशेष प्रकाश के लिए अग्नि को दीप्त करनेवाले को प्राप्त करे । ७३. (ब्रध्नस्य विष्टपाय) = सूर्यलोक के लिए (अभिषेक्तारम्) = ज्ञान - जल में अभिषेक करनेवाले को प्राप्त करे। ७२ में यह कहा था कि प्रकाश के लिए अग्नि को दीप्त करनेवाले को नियत करे, अर्थात् जो अपनी ज्ञानाग्नि से विद्यार्थी में ज्ञानाग्नि को समिद्ध करता है, विशेष प्रकाशक को नियत करे। ७३ में कहते हैं कि 'इस ज्ञान - जल में स्नान करनेवाले को सूर्यलोक में जन्म लेनेवाला जाने। ७४. (परिवेष्टारम्) = परोसनेवाले को वर्षिठाय (नाकाय) = सर्वोत्तम स्वर्गलोक के लिए नियुक्त करे, उत्तम स्वर्गलोक की प्राप्ति तभी होती है जब मनुष्य बाँटकर खाना सीखता है। ७५. (देवलोकाय) = देवलोक के लिए (पेशितारम्) = बुराइयों को चूर्णित करनेवाले को प्राप्त करे [पिश = पीसना ] । बुराइयों को समाप्त करके सौन्दर्य का निर्माण करनेवाले को जाने [पेश:- सौन्दर्य, shape ] ७६. (मनुष्यलोकाय) = मनुष्यलोक के लिए (प्रकरितारम्) = शत्रुओं-असुरों को उखाड़ फेंकनेवाले को अथवा ज्ञानादि का विकरण फैलाव करनेवाले को प्राप्त करे। इसी प्रकार मनुष्यों की स्थिति ऊँची हो सकती है। ७७. (सर्वेभ्यः लोकेभ्यः) = सब लोगों के कल्याण के लिए (उपसेक्तारम्) = उनमें ज्ञानादि गुणों का उपसेचन करनेवाले को नियुक्त करे। ७८. (अवऋत्यै) = नीचाचरण को रोकने के लिए तथा (वधाय) = वधों को [कुत्लों को] दूर करने के लिए (उपमन्थितारम्) = प्रजाओं का आलोडन करनेवाले को प्राप्त करे, उस अफसर को, जो प्रजाओं में विचरण करता हुआ ऐसे कार्यों को प्रजा में न होने दे। ७९. (मेधाय) = संगम के लिए, अर्थात् सभा समाजों में लोगों से मिलने-जुलने के लिए (वास: पल्पूलीम्) = कपड़े धोनेवाली को प्राप्त करे, अर्थात् इनसे कपड़ों को धो दिये जाने पर ही तो हम सभा - समाज में जा सकेंगे। मैले कपड़ों से तो मेलजोल सम्भव नहीं । ८०. (प्रकामाय) = उत्कृष्ट, लौकिक आनन्द के लिए (रजयित्रीम्) = रञ्जन करनेवाली को प्राप्त करे, उस स्त्री को प्राप्त करे जो अपने मधुर व्यवहार से अपने पति को रञ्जित करनेवाली होती है।

    भावार्थ - भावार्थ- उत्तम लोकों की प्राप्ति के लिए त्याग व अशुभवृत्ति-विनाश आवश्यक है।

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