यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 16
ऋषिः - नारायण ऋषिः
देवता - राजेश्वरौ देवते
छन्दः - विराट् कृतिः
स्वरः - निषादः
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सरो॑भ्यो धैव॒रमु॑प॒स्थाव॑राभ्यो॒ दाशं॑ वैश॒न्ताभ्यो॑ बै॒न्दं न॑ड्व॒लाभ्यः॒ शौष्क॑लं पा॒राय॑ मार्गा॒रम॑वा॒राय॑ के॒वर्त्तं॑ ती॒र्थेभ्य॑ऽआ॒न्दं विष॑मेभ्यो मैना॒ल स्वने॑भ्यः॒ पर्ण॑कं॒ गुहा॑भ्यः॒ किरा॑त॒ꣳ सानु॑भ्यो॒ जम्भ॑कं॒ पर्व॑तेभ्यः किम्पूरु॒षम्॥१६॥
स्वर सहित पद पाठसरो॑भ्य॒ इति॒ सरः॑ऽभ्यः। धै॒व॒रम्। उ॒प॒स्थाव॑राभ्य॒ इत्यु॑प॒ऽस्थाव॑राभ्यः। दाश॑म्। वै॒श॒न्ताभ्यः॑। बै॒न्दम्। न॒ड्व॒लाभ्यः॑। शौष्क॑लम्। पा॒राय॑। मा॒र्गा॒रम्। अ॒वा॒राय॑। कै॒वर्त्त॑म्। ती॒र्थेभ्यः॑। आ॒न्दम्। विष॑मेभ्य॒ इति॒ विऽस॑मेभ्यः। मै॒ना॒लम्। स्वने॑भ्यः। पर्ण॑कम्। गुहा॑भ्यः। किरा॑तम्। सानु॑भ्य॒ इति॒ सानु॑ऽभ्यः। जम्भ॑कम्। पर्व॑तेभ्यः। कि॒म्पू॒रु॒षम्। कि॒म्पु॒रु॒षमिति॑ किम्ऽपुरु॒षम् ॥१६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सरेभ्यो धैवरमुपस्थावराभ्यो दाशँ वैशन्ताभ्यो बैन्दन्नड्वलाभ्यः शौष्कलम्पाराय मार्गारमवराय कैवर्तन्तीतीर्थेभ्यऽआन्दँविषमेभ्यो मैनालँ स्वनेभ्यः पर्णकङ्गुहाभ्यः किरातँ सानुभ्यो जम्भकम्पर्वतेभ्यः किम्पूरुषम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
सरोभ्य इति सरःऽभ्यः। धैवरम्। उपस्थावराभ्य इत्युपऽस्थावराभ्यः। दाशम्। वैशन्ताभ्यः। बैन्दम्। नड्वलाभ्यः। शौष्कलम्। पाराय। मार्गारम्। अवाराय। कैवर्त्तम्। तीर्थेभ्यः। आन्दम्। विषमेभ्य इति विऽसमेभ्यः। मैनालम्। स्वनेभ्यः। पर्णकम्। गुहाभ्यः। किरातम्। सानुभ्य इति सानुऽभ्यः। जम्भकम्। पर्वतेभ्यः। किम्पूरुषम्। किम्पुरुषमिति किम्ऽपुरुषम्॥१६॥
विषय - सरों के लिए धीवर को
पदार्थ -
१११. (सरोभ्यः) = तलाबों के लिए (धैवरम्) = धीवर सन्तानों को नियत करे। तालाबों को स्वच्छ रखना इनका कार्य हो । ११२. (उपस्थावराभ्यः) = तालाबों के समीप [उप] लगी वाटिकाओं के लिए [स्थावराभ्यः] (दाशम्) = माली आदि भृत्यों को प्राप्त करे। उन पौधों में नियमपूर्वक पानी आदि देना इनका कार्य हो। ११३. (वैशन्ताभ्यः) = जोहड़ों के लिए [Pools] (बैन्दम्) = उन जोहड़ों से कमलगट्टे व सिंघाड़े आदि प्राप्त करनेवालों को [विद् लाभे] नियत करे। ११४. (नड्वलाभ्यः) = नड़ों व सरकण्डोंवाले प्रदेशों के लिए (शौष्कलम्) = [शुष्= कला] उन तृणों को सुखाकर कलात्मक वस्तुएँ बनानेवाले को नियत करे। ११५. (पाराय मार्गारम्) = पार जाने के लिए मार्ग को जाननेवाले को अथवा जल-जन्तुओं का शिकार कर सकनेवालों को नियत करे [मृगणाम् अरिः, तस्यापत्यम्] ११६. अवाराय नदी में उरले किनारे पर लौट आने के लिए (कैवर्तम्) = केवट को नियत करे। ११७. (तीर्थेभ्य:) = तीर्थों के लिए, घाट आदि के लिए अथवा तीर्थस्थानों के लिए जोकि प्रायः नदी के किनारे होते हैं (आन्दम्) = [अदि बन्धने] बाँध बाँधनेवाले को नियत करे। ११८. (विषमेभ्यः) = विषम स्थानों के लिए, जलों में संकटयुक्त स्थानों के लिए, जहाँ कि मगरमच्छ आदि का भय हो (मैनालम्) -ज= लों द्वारा [मीनान् अलति वारयति] मछली आदि के निवारण करनेवाले को नियत करे। ११९. (स्वनेभ्यः) = नाना प्रकार के शब्दों के लिए (पर्णकम्) = पहरेदार को [ पृ पालनपूरणयोः] नियुक्त करे अथवा (स्वनेभ्यः) = उत्तम स्वरों के लिए (पर्णकम्) = तुरही [वाद्यविशेष] बजानेवाले को प्राप्त करे। १२. (गुहाभ्यः) = पर्वत कन्दराओं के लिए, पर्वत- कन्दराओं में शेर आदि के खतरे से बचने के लिए (किरातम्) = भीलों को प्राप्त करे। १२१. (सानुभ्यः) = पर्वत-शिखरों के लिए (जम्भकम्) = [जभि नाशने] हिंस्र - पशुओं के नाश करनेवाले को नियत करे और १२२. (पर्वतेभ्यः) = पर्वतों के लिए (किम्पुरुषम्) = छोटे कदवाले पुरुषों को प्राप्त करें, पर्वतों पर ऐसे ही व्यक्ति सुविधा से कार्य कर सकते हैं, पर्वतारोही पुरुष छोटे कद के ही होने चाहिएँ ।
भावार्थ - भावार्थ-तालाबों व पहाड़ों पर कार्यव्यवस्था के लिए तदुपयुक्त पुरुषों को नियत करना चाहिए। तालाबों के लिए धीवर आदि तो पर्वतों के लिए किरात आदि।
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