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  • यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 3
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव। यद्भ॒द्रं तन्न॒ऽआ सु॑व॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वा॑नि। दे॒व॒। स॒वि॒तः॒। दु॒रि॒तानीति॑ दुःऽइ॒तानि॑। परा॑। सु॒व॒। यत्। भ॒द्रम्। तत्। नः॒। आ। सु॒व॒ ॥३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव । यद्भद्रन्तन्नऽआ सुव ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वानि। देव। सवितः। दुरितानीति दुःऽइतानि। परा। सुव। यत्। भद्रम्। तत्। नः। आ। सुव॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 30; मन्त्र » 3
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    पदार्थ -
    १. हे (देव) = दिव्य गुणों के पुञ्ज ! (सवितः) = सबके प्रेरक प्रभो! (विश्वानि) = हमारे न चाहते हुए भी हममें घुस आनेवाली (दुरितानि) = बुराइयों को (परासुव) = हमसे दूर कर दीजिए । २. बुराइयों को दूर करके (यत् भद्रम्) = जो शुभ है, कल्याणकर है (तत्) = उसे (नः) = हमें आसुव = सर्वथा प्राप्त कराइए। ३. हमारे जीवन का कार्यक्रम यही हो कि हम दुरितों को दूर करते चलें और भद्र बातों को ग्रहण करते जाएँ। यही उत्तम बनने का मार्ग है, यही आपके समीप पहुँचने का साधन है। यही वास्तविक उपासना है। ४. यहाँ मन्त्र के पूर्वार्ध में 'नः' का प्रयोग नहीं, पर उत्तरार्ध में नः का प्रयोग है। दोष दूरीकरण में दूसरों के दोषों को हमें देखना ही नहीं चाहिए, परन्तु कल्याण - प्राप्ति की प्रार्थना सभी के लिए करनी चाहिए, इसीलिए उत्तरार्ध में 'नः' शब्द का सौन्दर्य स्पष्ट है। ५. वस्तुतः हम दोषों को दूर करके व भद्र का संग्रह करके ही मन्त्र के ऋषि 'नारायण' बनने की तैयारी करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभुकृपा से हमारे दोष दूर हों और हमें भद्र की प्राप्ति हो ।

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