यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 9
ऋषिः - नारायण ऋषिः
देवता - विद्वान् देवता
छन्दः - भुरिगत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
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स॒न्धये॑ जा॒रं गे॒हायो॑पप॒तिमार्त्यै॒ परि॑वित्तं॒ निर्ऋ॑त्यै परिविविदा॒नमरा॑द्ध्याऽ एदिधिषुः प॒तिं निष्कृ॑त्यै पेशस्का॒री सं॒ज्ञाना॑य स्मरका॒रीं प्र॑का॒मोद्या॑योप॒सदं॒ वर्णा॑यानु॒रुधं॒ बला॑योप॒दाम्॥९॥
स्वर सहित पद पाठस॒न्धय॒ इति॑ स॒म्ऽधये॑। जा॒रम्। गे॒हाय॑। उ॒प॒प॒तिमित्यु॑पऽप॒तिम्। आर्त्या॒ऽऽइत्याऽऋ॑त्यै। परि॑वित्त॒मिति॒ परि॑ऽवित्तम्। निर्ऋ॑त्या॒ इति॒ निःऽऋ॑त्यै। प॒रि॒वि॒वि॒दा॒नमिति॑ परिऽविविदा॒नम्। अरा॑ध्यै। ए॒दि॒धि॒षुः॒प॒तिमित्यो॑दिधिषुःऽ प॒तिम्। निष्कृ॑त्यै। निःकृ॑त्या॒ इति॒ निःकृ॑त्यै। पे॒श॒स्का॒रीम्। पे॒शः॒का॒रीमिति॑ पेशःका॒रीम्। सं॒ज्ञाना॒येति॑ स॒म्ऽज्ञाना॑य। स्म॒र॒का॒रीमिति॑ स्मरऽका॒रीम्। प्र॒का॒मोद्या॒येति॑ प्रकाम॒ऽउद्या॑य। उ॒प॒सद॒मित्यु॑प॒ऽसद॑म्। वर्णा॑य। अ॒नु॒रुध॒मित्य॑नु॒ऽरुध॑म्। बला॑य। उ॒प॒दामित्यु॑प॒ऽदाम् ॥९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सन्धये जारङ्गेहायोपपतिमार्त्यै परिवित्तन्निरृत्यै परिविविदानमराद्धयाऽएदिधिषुःतिन्निष्कृत्यै पेशस्कारीँ सञ्ज्ञानाय स्मरकारीम्प्रकामोद्यायोपसदँवर्णायानुरुधम्बलायोपदाम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
सन्धय इति सम्ऽधये। जारम्। गेहाय। उपपतिमित्युपऽपतिम्। आर्त्याऽऽइत्याऽऋत्यै। परिवित्तमिति परिऽवित्तम्। निर्ऋत्या इति निःऽऋत्यै। परिविविदानमिति परिऽविविदानम्। अराध्यै। एदिधिषुःपतिमित्योदिधिषुःऽ पतिम्। निष्कृत्यै। निःकृत्या इति निःकृत्यै। पेशस्कारीम्। पेशःकारीमिति पेशःकारीम्। संज्ञानायेति सम्ऽज्ञानाय। स्मरकारीमिति स्मरऽकारीम्। प्रकामोद्यायेति प्रकामऽउद्याय। उपसदमित्युपऽसदम्। वर्णाय। अनुरुधमित्यनुऽरुधम्। बलाय। उपदामित्युपऽदाम्॥९॥
विषय - सन्धि के लिए जार को
पदार्थ -
४१. (सन्धये जारम्) = सन्धि के लिए वृद्ध [जीर्ण] पुरुष को प्राप्त करे। ये वृद्ध पुरुष शान्ति से बात कर सकते हैं और इन्हें एक लम्बा अनुभव प्राप्त हो चुका होता है, अतः ये सन्धि के लिए अधिक उपयुक्त होते हैं। ४२. (गेहाय) = घर की रक्षा के लिए (उपपतिम्) = एक उपसंरक्षक [Assistant Guard] को नियुक्त करे। स्वयं तो राजा राजकार्यों में व्यस्त रहेगा न कि घर की ही रक्षा करता रहेगा। ४३. (आर्त्यै) = पीड़ा को दूर करने के लिए परिवित्तम्सब प्रकार से ज्ञान प्राप्त करनेवाले को प्राप्त करे। सब प्रकार का सच्चा ज्ञान [true information] प्राप्त करके कष्ट के समय पर उसका उपयोग करके लोगों का कष्टों से संरक्षण करना इसका काम होगा। ४४. (निर्ऋत्यै) = भूख, महामारी आदि कष्टों को दूर करने के लिए (परिविविदानम्) = सब ओर से साधनों को प्राप्त करनेवाले को नियुक्त करे। ४५. (अराद्धयै) = दरिद्रता को दूर करने के लिए (एदिधिषुः पतिम्) = सबसे प्रमुख धारण करने योग्य सम्पत्ति के पालक को प्राप्त करे [अग्रे दिधिषति धारयितुमिच्छति ] पिछले तीन वाक्यों का अर्थ इस रूप में भी होता है कि बड़े भाई के अविवाहित होते हुए विवाहित होनेवाले छोटे भाई को पीड़ा [परिवित्तम् ] के लिए प्राप्त करता है। बड़े भाई की उपेक्षा करके दायभाग लेनेवाले छोटे भाई को [परिविविदानम्] निर्ऋति महान् कष्ट के लिए जाने। बड़ी कन्या के रहते छोटी के साथ विवाह करनेवाले (एदिधिषुः पतिम्) = व्यक्ति को असमृद्धि के लिए जाने। इसलिए राजा कानून द्वारा इन तीनों स्थितियों पर प्रतिबन्ध लगाये । ४६. (निष्कृत्यै) = सुधारने के लिए (पेशस्कारीम्) = सौन्दर्य बढ़ाने के साधनों को बनानेवाले को प्राप्त करे। ४७. (संज्ञानाय) = उत्तम ज्ञान के लिए (स्मरकारीम्) = स्मरण करानेवाली क्रिया को प्राप्त करे। ४८ (प्रकामोद्याय) = यथेष्ठ बातचीत करने के लिए, जी खोलकर बात करने के लिए (उपसदम्) = निकटतम मित्र को प्राप्त करे। ४९. (वर्णाय अनुरुधम्) = किसी बात को स्वीकार करा देने के लिए उचित ढंग से अनुरोध करनेवाले पुरुष को नियत करे। ५०. (बलाय उपदाम्) = बल की वृद्धि के लिए भेंट व पुरस्कार देनेवाले को प्राप्त करे । पुरस्कार देने से सैनिकों का उत्साह निश्चितरूप से बढ़ेगा।
भावार्थ - भावार्थ - राजा राष्ट्र में सन्धि आदि कार्यों के लिए उपयुक्त व्यक्तियों को नियत करे ।
- नोट- आर्ति का अर्थ पीड़ा के लिए सामान्यत होता है। यहाँ पीड़ा की निवृत्ति के लिए किया गया है। जैसे 'मशकाय धूमः' का अर्थ 'मच्छरों की निवृत्ति के लिए धूंआ' होता है।
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