यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 16
ऋषिः - श्रीकाम ऋषिः
देवता - विद्वद्राजानौ देवते
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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इ॒दं मे॒ ब्रह्म॑ च क्ष॒त्रं चो॒भे श्रिय॑मश्नुताम्।मयि॑ दे॒वा द॑धतु॒ श्रिय॒मुत्त॑मां॒ तस्यै॑ ते॒ स्वाहा॑॥१६॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम्। मे॒। ब्रह्म॑। च॒। क्ष॒त्रम्। च॒। उ॒भेऽइत्यु॒भे। श्रिय॑म्। अ॒श्नु॒ताम्। मयि॑। दे॒वाः। द॒ध॒तु॒। श्रिय॑म्। उत्त॑मा॒मित्युत्ऽत॑माम्। तस्यै॑। ते॒। स्वाहा॑ ॥१६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदम्मे ब्रह्म च क्षत्रञ्चोभे श्रियमश्नुताम् । मयि देवा दधतु श्रियमुत्तमान्तस्यै ते स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
इदम्। मे। ब्रह्म। च। क्षत्रम्। च। उभेऽइत्युभे। श्रियम्। अश्नुताम्। मयि। देवाः। दधतु। श्रियम्। उत्तमामित्युत्ऽतमाम्। तस्यै। ते। स्वाहा॥१६॥
विषय - श्री त्रितय [ ब्रह्मश्री, क्षत्र श्री, देवश्री ] ज्ञान+बल + विनय [ उत्-उत्तर- उत्तम ] Head, Hand, Heart
पदार्थ -
१. (इदम्) = यह (मे) = मेरा (ब्रह्म च) = ज्ञान (क्षत्रम् च) = और बल (उभे) = दोनों (श्रियम्) = श्री को (अश्नुताम्) = प्राप्त करें। 'ब्रह्म' शब्द बृहि वृद्धौ से बनकर 'बढ़ानेवाले' अर्थ का वाचक है। ज्ञान ही सब वृद्धियों का मूल है, अतः ब्रह्मशब्द 'ज्ञान' का वाचक हो जाता है। यही ज्ञान अन्ततः सदावृद्ध 'ब्रह्म' का दर्शन कराता है। 'क्षत्र' शब्द मूल में 'क्षत से त्राण' [चोट से रक्षा] की भावना को कहता है। चोट से रक्षा बल के द्वारा होती है, अतः क्षत्र शब्द बल का वाचक हो गया है। 'बल' कर्म से उत्पन्न होता है, अतः 'क्षत्र' कर्म का प्रतीक हो जाता है। 'क्षत्र' उस वृक्ष को कहते हैं जिसके फूल फल तो 'चोट से रक्षण' हैं, तना व शाखाएँ बल हैं और मूल कर्म है। एवं ब्रह्म का अभिप्राय ज्ञान है, क्षत्र का अभिप्राय कर्म व बल है। मुझमें ये दोनों ही फूलें व फलें। मेरा ज्ञान भी बढ़े, मेरा बल व क्रियाशक्ति भी बढ़े। ज्ञान के विकास से मेरी श्री 'उत्' [उत्कृष्ट] होगी, बल व क्रिया के विकास से वह 'उत्तर' [अधिक उत्कृष्ट] हो जाएगी। केवल ज्ञान की श्रीवाला उस युवति के समान है जिसकी मुखाकृति बड़ी सुन्दर है, परन्तु हाथ कटे हैं। कर्म व बल की श्रीवाला उस युवति के समान है जिसकी मुखाकृति तो सुन्दर है ही, हाथ भी बड़े सुन्दर हैं। २. मुख भी सुन्दर हो, हाथ आदि भी सुन्दर हों, परन्तु यदि उसका हृदय काला हो तो वह युवति उस बेर से ही उपमा देने योग्य होती है, जो केवल बाहर से सुन्दर है। इससे तो कुरूप परन्तु उत्तम हृदयवाली युवति ही ठीक है जो नारियल के समान बाहर से सुन्दर न होती हुई भी अन्दर से मधुरजल से पूर्ण है, अतः मन्त्र में कहते हैं कि (मयि) = मुझमें (देवा:) = दिव्यगुण (उत्तमाम् श्रियम्) = उत्तम श्री को (दधतु) = धारण करें। मेरे हृदय में दिव्यता हो, दैवी सम्पत्ति की चरमसीमा 'नातिमानिता' में है। मेरा हृदय अभिमान- घमण्ड से रहित हो। उसमें विनीतता हो । मस्तिष्क में ब्रह्म, हाथों में क्षत्र तथा हृदय में दिव्यता व विनय-यही जीवन का चरमोत्कर्ष है। मानव जीवन की यात्रा की पूर्णता इस दिव्यता में ही है। मस्तिष्क Head की पूर्णता ज्ञान से, हाथ Hand की क्षत्र से व हृदय Heart की पूर्णता दिव्यता से होती है। इन तीनों के पूर्ण होने में ही पूर्णता है। ३. यह (श्री) = लक्ष्मी विष्णु की पत्नी है। विष्णु त्रिविक्रम हैं। यदि मनुष्य केवल (ब्रह्म) = ज्ञान को महत्त्व देता है तो वह एक विक्रम होता है, (क्षत्र) = बल को भी अपनाने पर वह (द्वि-विक्रम) = हो जाता है और दिव्यता को अपनाने पर वह त्रिविक्रम बनता है। वस्तुतः अब वह श्रीपति बन जाता है। ४. (तस्यै) = उस उत्तम श्री के लिए मैं ते हे प्रभो! आपके प्रति (स्वाहा) = [ स्व - हा] अपना समर्पण करता हूँ। प्रभु चित्रकार हैं, जीवरूप चित्र का अच्छा बनना इसी बात पर निर्भर करता है कि यह चित्रकार को चित्र बनाने दे, किसी प्रकार का विघ्न न करे तभी तो प्रभु उसे अपने अनुरूप बनाएँगे ।
भावार्थ - भावार्थ - ज्ञान के द्वारा हमारी श्री उत्कृष्ट हो, ज्ञान+बल के द्वारा वह उत्कृष्टतर हो, और ज्ञान+बल+दिव्यता से वह उत्कृष्टतम हो। इस श्री की प्राप्ति के लिए हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें। हम वह चित्र हों, जिसके चित्रकार प्रभु हों
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