यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 16
ऋषिः - श्रीकाम ऋषिः
देवता - विद्वद्राजानौ देवते
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
199
इ॒दं मे॒ ब्रह्म॑ च क्ष॒त्रं चो॒भे श्रिय॑मश्नुताम्।मयि॑ दे॒वा द॑धतु॒ श्रिय॒मुत्त॑मां॒ तस्यै॑ ते॒ स्वाहा॑॥१६॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम्। मे॒। ब्रह्म॑। च॒। क्ष॒त्रम्। च॒। उ॒भेऽइत्यु॒भे। श्रिय॑म्। अ॒श्नु॒ताम्। मयि॑। दे॒वाः। द॒ध॒तु॒। श्रिय॑म्। उत्त॑मा॒मित्युत्ऽत॑माम्। तस्यै॑। ते॒। स्वाहा॑ ॥१६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदम्मे ब्रह्म च क्षत्रञ्चोभे श्रियमश्नुताम् । मयि देवा दधतु श्रियमुत्तमान्तस्यै ते स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
इदम्। मे। ब्रह्म। च। क्षत्रम्। च। उभेऽइत्युभे। श्रियम्। अश्नुताम्। मयि। देवाः। दधतु। श्रियम्। उत्तमामित्युत्ऽतमाम्। तस्यै। ते। स्वाहा॥१६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे परमेश्वर! भवत्कृपया; हे विद्वन्! तव पुरुषार्थेन च स्वाहा मे ममेदं ब्रह्म च क्षत्रं चोभे श्रियमश्नुतां यथा देवा मय्युत्तमां श्रियं दधतु तथाऽन्येष्वपि। हे जिज्ञासो! ते तुभ्यं तस्यै वयं प्रयतेमहि॥१६॥
पदार्थः
(इदम्) (मे) मम (ब्रह्म) वेदेश्वरविज्ञानं तद्वत्कुलम् (च) (क्षत्रम्) राज्यं धनुर्वेदविद्या क्षत्रियकुलम् (च) (उभे) (श्रियम्) राजलक्ष्मीम् (अश्नुताम्) प्राप्नुताम् (मयि) (देवाः) विद्वांसः (दधतु) धरन्तु (प्रियम्) शोभां लक्ष्मीं च (उत्तमाम्) अतिश्रेष्ठाम् (तस्यै) श्रियै (ते) तुभ्यम् (स्वाहा) सत्याचरणया क्रियया॥१६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः परमेश्वराज्ञापालनेन विदुषां सेवया सत्कारेण सर्वेषां मनुष्याणां मध्याद् ब्राह्मणक्षत्रियौ सुशिक्ष्य विद्यादिसद्गुणैः संयोज्य सर्वेषामुन्नतिं विधाय स्वात्मवत् सर्वेषु वर्त्तेरन् ते सर्वपूज्याः स्युरिति॥१६॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे परमेश्वर! आपकी कृपा और हे विद्वन्! तेरे पुरुषार्थ से (स्वाहा) सत्याचरणरूप क्रिया से (मे) मेरे (इदम्) ये (ब्रह्म) वेद, ईश्वर का विज्ञान वा इनका ज्ञाता पुरुष (च) और (क्षत्रम्) राज्य, धनुर्वेदविद्या और क्षत्रिय कुल (च) भी ये (उभे) दोनों (श्रियम्) राज्य की लक्ष्मी को (अश्नुताम्) प्राप्त हों, जैसे (देवाः) विद्वान् लोग (मयि) मेरे निमित्त (उत्तमाम्) अतिश्रेष्ठ (श्रियम्) शोभा वा लक्ष्मी को (दधतु) धारण करें, हे जिज्ञासु जन! (ते) तेरे लिये भी (तस्यै) उस श्री के अर्थ हम लोग प्रयत्न करें॥१६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङकार है। जो मनुष्य परमेश्वर की आज्ञापालन और विद्वानों की सेवा-सत्कार से सब मनुष्यों के बीच से ब्राह्मण, क्षत्रिय को सुन्दर शिक्षा, विद्यादि सद्गुणों से संयुक्त और सबकी उन्नति का विधान कर अपने आत्मा के तुल्य सबमें वर्त्तें, वे सब को पूजने योग्य होवें॥१६॥
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
हे महाविद्य! महाराज ! सर्वेश्वर! (मे ब्रह्म) मेरा ब्रह्म [विद्वान्] और (क्षत्रम्) राजा महाचतुर, न्यायकारी शूरवीर राजादि क्षत्रिय - ये दोनों आपकी अनन्त कृपा से यथावत् अनुकूल हों। (श्रियम्) सर्वोत्तम विद्यादिलक्षणयुक्त महाराज्यश्री को हम प्राप्त हों । हे (देवाः) विद्वानो! दिव्य ईश्वर - गुण, परमकृपा आदि तथा उत्तम विद्यादिलक्षणसमन्वित श्री को मुझमें अचलता से धारण कराओ, उस श्री को मैं अत्यन्त प्रीति से स्वीकार करूँ और उस श्री को विद्यादि सद्गुण वा सर्वसंसार के हित के लिए तथा राज्यादि प्रबन्ध के लिए व्यय करूँ ॥ ५५ ॥
टिपण्णी
* अजमेरीय संस्करणों में इसके आगे "समाप्तश्चायं ग्रन्थः" पाठ मिलता है, वह अयुक्त है, क्योंकि आर्याभिविनय ग्रन्थ पूर्ण नहीं है, अधूरा है। इसके चार प्रकाश और लिखे जाने थे, जो महर्षि की असामयिक मृत्यु के कारण नहीं लिखे जा सके। - जगदीश्वरानन्द
विषय
ब्रह्म, क्षत्र दोनों के लिये ऐश्वर्य की प्रार्थना । समस्त मन्त्रों की राजपक्ष में योजना ।
भावार्थ
( ब्रह्म च क्षत्रं च ) ब्रह्म, ब्राह्मण विद्वान् जन और क्षत्रिय लोग (उभे) दोनों (मे) मेरे ( श्रियम् ) लक्ष्मी का ( अश्नुताम् ) उपभोग करें | (देवाः) देव, विद्वान् गण या दिव्य गुण ( मयि ) मुझमें ( उत्तमां श्रियम् ) उत्तम लक्ष्मी (दधातु) धारण करावें । (तस्यै ते स्वाहा ) उस तुझ लक्ष्मी से मैं उत्तम यश को प्राप्त करूं । 'सभाया ज्ञानस्य न्यायस्य दण्डस्य वा पतिम् पालकम्' दयानन्दः । इस लिङ्ग से यह समस्त अध्याय दण्डपति शासक, सभापति राजा के पक्ष में भी लगता है जिसको संक्षेप से दर्शाते हैं- १ - राजा शत्रुतापक होने से 'अग्नि', कर लेने से 'आदित्य', बलवान् 'उग्र होने से 'वायु', आह्लादक होने से 'चन्द्र', वीर्यवान् होने से 'शुक्र',,आप्त पुरुषों का आश्रय होने से 'आपः' और प्रजापालक होने से 'प्रजा- 'पति' है । २-उस तेजस्वी राजा से ही राष्ट्र के सब (निमेषाः) छोटे बड़े कार्य व्यवहार उत्पन्न होते हैं। उस राजा को कोई शत्रु भी न ऊपर से, न पीछे से, न बीच से आक्रमण करे ।३ – उसके बराबरी का कोई नहीं । उसका महान् नाम और यश है ।४- वह सबसे मुख्य हो, वह सब प्रदेशों का शासक हो । वह प्रसिद्ध हो, राष्ट्र के प्रत्येक पदार्थ और जन का स्वामी हो । वह सबसे मुख्य अधिकारी होकर रहे । ५- जिससे बढ़कर सब पर कोई शासक नहीं वह प्रजापालक राजा प्रजा से ही सुखी होता हुआ तीनों प्रकार के ज्योति, बलों, अधिकारों को प्राप्त करे और १६ हों अमात्यों या राज्याङ्गों से युक्त हो । शरीर-बल, ज्ञान-बल और अर्थबल अथवा अपना देह, सभा और राष्ट्र का बल तीन ज्योति हैं । ६ – वह आकाश, पृथिवी, सुखप्रद ऐश्वर्य और सर्व सुख कर राष्ट्र का वशकर्त्ता हो अन्तरिक्ष के पद पर रह कर समस्त (रजसः) लोकों को वश करे । ७ – राजा और प्रजावर्ग उसके रक्षण - बल से सुव्यवस्थित होकर चित्त से उसका भय मानें । वह सूर्य के समान उदय को प्राप्त हो । ८ - विद्वान् जन उस राजा को राष्ट्र के मध्य भाग में स्थित देखता रहता है । समस्त राष्ट्र उस पर एकाश्रय होकर रहता है ।वह उसी के आश्रय पर बढ़ता घटता है । वह विशेष सामर्थ्यवान् होकर प्रजाओं में करने योग्य व्यवस्थाओं से ओत प्रोत हो जाता है । ९ – विद्वान् ज्ञानी पुरुष तेज के धारण करने वाले उस अमर, अखण्ड शासन का उपदेश करें । जिसनें तीन पद उसी में विराजमान हैं। जो उस राज्य-तत्व को जानता है वह पालक पिता से बढ़ कर पालक है । १०- वह समस्त प्राणियों, लोकों, देशों और दिशाओं को प्राप्त करके 'प्रथमजा' अर्थात् भूमि को प्राप्त कर स्वयं अपने बल से उसमें जमकर बैठता है । ११ - वह राजा प्रजावर्ग और समस्त लोकों और (स्व:) राज-सभा को प्राप्त कर, वश कर (ऋतस्य) राष्ट्र की सत्य व्यवस्था,कानून सूत्र को बांध कर राष्ट्र पर आंख रखता है और तन्मय हो जाता है और राष्ट्रस्वरूप होकर रहता है । १२ – मैं प्रजाजन 'सदसस्पति" अर्थात् राष्ट्रपति, सभापति, दण्डपति, अद्भुत, ( इन्द्रस्य काम्यम् ) ऐश्वर्य के कामना योग्य, जिसको सब कोई चाहे, ऐसे आश्चर्यजनक वीर, प्रिय राजा को प्राप्त करूं और ( सनिम् ) सेवनीय, सुखप्रद और (मेधाम् ) मुझ राष्ट्र प्रजा के धारक पोषक या शत्रुनाशक शक्ति को प्राप्त करूं । १३ – जिस (मेधाम् ) संगतिकारक शक्ति को या शत्रुनाशक शक्ति को देव, विजेता राजा लोग और राष्ट्र के पालक लोग उपासना करते, उसका आश्रय लेते हैं, हे अग्रणी नेतः ! तु उससे मुझे युक्त कर । १४- शत्रुओं का वारक, अग्रणी, प्रजापालक, शत्रुनाशक, पृथ्वीपति, वायु केसमान उग्र, बली पुरुष मुझे वह 'मेधा' शक्ति प्रदान करे । १६ – मेरी। राष्ट्र सम्पत्ति का ब्राह्मण, क्षत्रिय, विद्यावान् और बलवान् पुरुष भोग करें । विजेता लोग और विद्वान् लोग मुझ में श्री, सम्पत्ति को धारण करें, (तस्यै ते स्वाहा ) उसको वे उत्तम पात्र में प्रदान करें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विद्वद्- राजानौ । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
श्री त्रितय [ ब्रह्मश्री, क्षत्र श्री, देवश्री ] ज्ञान+बल + विनय [ उत्-उत्तर- उत्तम ] Head, Hand, Heart
पदार्थ
१. (इदम्) = यह (मे) = मेरा (ब्रह्म च) = ज्ञान (क्षत्रम् च) = और बल (उभे) = दोनों (श्रियम्) = श्री को (अश्नुताम्) = प्राप्त करें। 'ब्रह्म' शब्द बृहि वृद्धौ से बनकर 'बढ़ानेवाले' अर्थ का वाचक है। ज्ञान ही सब वृद्धियों का मूल है, अतः ब्रह्मशब्द 'ज्ञान' का वाचक हो जाता है। यही ज्ञान अन्ततः सदावृद्ध 'ब्रह्म' का दर्शन कराता है। 'क्षत्र' शब्द मूल में 'क्षत से त्राण' [चोट से रक्षा] की भावना को कहता है। चोट से रक्षा बल के द्वारा होती है, अतः क्षत्र शब्द बल का वाचक हो गया है। 'बल' कर्म से उत्पन्न होता है, अतः 'क्षत्र' कर्म का प्रतीक हो जाता है। 'क्षत्र' उस वृक्ष को कहते हैं जिसके फूल फल तो 'चोट से रक्षण' हैं, तना व शाखाएँ बल हैं और मूल कर्म है। एवं ब्रह्म का अभिप्राय ज्ञान है, क्षत्र का अभिप्राय कर्म व बल है। मुझमें ये दोनों ही फूलें व फलें। मेरा ज्ञान भी बढ़े, मेरा बल व क्रियाशक्ति भी बढ़े। ज्ञान के विकास से मेरी श्री 'उत्' [उत्कृष्ट] होगी, बल व क्रिया के विकास से वह 'उत्तर' [अधिक उत्कृष्ट] हो जाएगी। केवल ज्ञान की श्रीवाला उस युवति के समान है जिसकी मुखाकृति बड़ी सुन्दर है, परन्तु हाथ कटे हैं। कर्म व बल की श्रीवाला उस युवति के समान है जिसकी मुखाकृति तो सुन्दर है ही, हाथ भी बड़े सुन्दर हैं। २. मुख भी सुन्दर हो, हाथ आदि भी सुन्दर हों, परन्तु यदि उसका हृदय काला हो तो वह युवति उस बेर से ही उपमा देने योग्य होती है, जो केवल बाहर से सुन्दर है। इससे तो कुरूप परन्तु उत्तम हृदयवाली युवति ही ठीक है जो नारियल के समान बाहर से सुन्दर न होती हुई भी अन्दर से मधुरजल से पूर्ण है, अतः मन्त्र में कहते हैं कि (मयि) = मुझमें (देवा:) = दिव्यगुण (उत्तमाम् श्रियम्) = उत्तम श्री को (दधतु) = धारण करें। मेरे हृदय में दिव्यता हो, दैवी सम्पत्ति की चरमसीमा 'नातिमानिता' में है। मेरा हृदय अभिमान- घमण्ड से रहित हो। उसमें विनीतता हो । मस्तिष्क में ब्रह्म, हाथों में क्षत्र तथा हृदय में दिव्यता व विनय-यही जीवन का चरमोत्कर्ष है। मानव जीवन की यात्रा की पूर्णता इस दिव्यता में ही है। मस्तिष्क Head की पूर्णता ज्ञान से, हाथ Hand की क्षत्र से व हृदय Heart की पूर्णता दिव्यता से होती है। इन तीनों के पूर्ण होने में ही पूर्णता है। ३. यह (श्री) = लक्ष्मी विष्णु की पत्नी है। विष्णु त्रिविक्रम हैं। यदि मनुष्य केवल (ब्रह्म) = ज्ञान को महत्त्व देता है तो वह एक विक्रम होता है, (क्षत्र) = बल को भी अपनाने पर वह (द्वि-विक्रम) = हो जाता है और दिव्यता को अपनाने पर वह त्रिविक्रम बनता है। वस्तुतः अब वह श्रीपति बन जाता है। ४. (तस्यै) = उस उत्तम श्री के लिए मैं ते हे प्रभो! आपके प्रति (स्वाहा) = [ स्व - हा] अपना समर्पण करता हूँ। प्रभु चित्रकार हैं, जीवरूप चित्र का अच्छा बनना इसी बात पर निर्भर करता है कि यह चित्रकार को चित्र बनाने दे, किसी प्रकार का विघ्न न करे तभी तो प्रभु उसे अपने अनुरूप बनाएँगे ।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञान के द्वारा हमारी श्री उत्कृष्ट हो, ज्ञान+बल के द्वारा वह उत्कृष्टतर हो, और ज्ञान+बल+दिव्यता से वह उत्कृष्टतम हो। इस श्री की प्राप्ति के लिए हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें। हम वह चित्र हों, जिसके चित्रकार प्रभु हों
मन्त्रार्थ
(इदम्) इस प्रकार (मे ब्रह्म क्षत्रं च उभे श्रियम्-अश्नुताम्) मेरे ज्ञान और बल दोनों शोभा को प्राप्त हों (देवा: मयि-उत्तमां श्रियं दधतु) विद्वान् जन मेरे अन्दर उत्तम श्री आत्मविद्या को धारण करावें (तस्यै ते स्वाहा) उस श्री के लिये ब्रह्म और क्षत्र दोनों उपयुक्त हैं ॥१६॥
विशेष
ऋषिः-स्वयम्भु ब्रह्म १-१२ । मेधाकामः १३-१५ । श्रीकामः १६ ।। देवताः-परमात्मा १-२, ६-८ १०, १२, १४। हिरण्यगर्भः परमात्मा ३ । आत्मा ४ । परमेश्वरः ५ । विद्वान् । इन्द्रः १३ । परमेश्वर विद्वांसौ १५ । विद्वद्राजानौ १६ ॥
मराठी (3)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे, जी माणसे परमेश्वराच्या आज्ञेने पालन करतात व विद्वानांची सेवा आणि सत्कार करतात, ब्राह्मण आणि क्षत्रियांना चांगले शिक्षण व विद्या देऊन सद्गुणांनी युक्त करतात आणि आपल्या आत्म्याप्रमाणेच सर्वांच्या उन्नतीसाठी झटून सर्वांशी त्याप्रमाणे वर्तन करतात ती सर्व लोकांमध्ये पूजनीय ठरतात.
विषय
पुन्हा त्याच विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे परमेश्वर, आपल्या कृपेने आणि हे विद्वान महोदय, आपल्या पुरूषार्थाने (स्वाहा) सत्य-आचरण रूप कर्माद्वारे (मे) मला (इदम्) हे (ब्रह्म) वेद, ईश्वराचे ज्ञान वा ध्यान अथवा वेद ईश्वराचा ज्ञाता विद्वान (मला प्राप्त व्हावा) तसेच (क्षत्रम्) राज्य, धनुर्वेद आणि क्षत्रिय (च) देखील (उभे) दोघे (म्हणजे ब्रह्मज्ञानी विद्वान आणि धनुर्धर क्षत्रिय) (श्रियम्) राज्याच्या लक्ष्मी म्हणजे ऐश्वर्य वृद्धीसाठी (अश्नुताम्) प्राप्त व्हावेत. ज्याप्रमाणे विद्वज्जन (मयि) माझ्यासाठी (मी राष्ट्र कल्याणचिन्तक) (मयि) माझ्यासाठी (उत्तमाम्) अतिश्रेष्ठ (श्रियम्) सौंदर्य व लक्ष्मी (दधतु) धारण करोत, तद्वत हे जिज्ञासु मनुष्या, (ते) तुझ्यासाठीदेखील (तस्यै) ती श्री संपदा मिळण्यासाठी आम्ही (सर्व सामाजिकजन) यत्न करू. ॥16॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोमा अलंकार आहे. जो माणूस परमेश्वराच्या आज्ञेचे पालन करतो आणि विद्वानांची सेवा-सत्कार करतो तसेच सर्व लोकांमधून (गुणधर्म स्वभावानुसार माणसें निवडून) त्यांना ब्राह्मण, क्षत्रिय या वर्णीची सुंदर शिक्षण देतो आणि सर्वांच्या उन्नतीचे विधान-प्रबंध करीत आपल्या प्रमाणे सर्वांशी वागतो (सर्वांनी आपल्याशी जसे वागण्याची इच्छा करतो तद्वत इतरांशी वागतो) तो सर्वांसाठी पूजनीय होतो. ॥16॥
टिप्पणी
या अध्यायात परमेश्वर, विद्वान, बुद्धिप्राप्ती, धनप्राप्ती उपाय या विषयांचे वर्णन आहे. त्यामुळे या अध्यायाच्या अर्थाशी मागील (३१) व्या अध्यायाचा अर्थाचा संबंध आहे वा संगती आहे. हे जाणावे.॥^यजुर्वेद हिन्दी भाष्याच्या मराठी भाष्यानुवादाचा ३२ वा अध्याय समाप्त
विषय
स्तुती
व्याखान
हे महाविद्यायुक्त सर्वेश्वर महाराज! माझा (ब्रह्म) ब्रह्म [विद्वान] आणि (क्षत्रम्) क्षत्र [राजा, राज्य, महाचतूर न्यायकारी शूरवीर, क्षत्रिय] हे दोन्ही तुझ्या अनत कृपेने अनुकूल व्हावेत. (श्रियम्) सर्वोत्तम विद्या जेथे असेल अशा महान राजाची श्री आम्हाला प्राप्त व्हावी. हे (देवाः) विद्वानांनो ! दिव्य ईश्वरी गुण व त्याची परम कृपा इत्यादी उत्तम विद्या लक्षणाने युक्त स्थिर अशी श्री मला मिळू दे. त्याचा मी प्रेमाने स्विकार करीन, व त्या श्रीचा उपयोग विद्या इत्यादी सद्गुणांसाठी किंवा जगाच्या कल्याणासाठी व राज्याची व्यवस्था करण्यासाठी करीन.॥१५॥
इंग्लिश (4)
Meaning
O God, through Thy grace, leading a life of truth, may these Brahmans and Kshatriyas of my country enjoy the splendour and wealth of my government. Just as the learned persons bestow best splendour and wealth on me, so O seeker after truth may we try for that splendour and wealth for thee.
Meaning
May this knowledge of mine and the Brahmana fellowship, and this power and honour of mine and the Kshatra organisation, both grow to excellence and grace. May the noblest people bless me with the best of excellence and grace. All the best for you in truth of word and deed. This is the divine voice of the soul.
Purport
O the Possessor of Supreme wisdom I The King of kings I The Ruler of the Universe ! By Your Infinite Grace may our intellectual scholars be most wise; dispenser of justice, valorous king and militants-both of them be in complete harmony, so that they may acquire supreme sovereignity where excellent knowledge and education should pervail. O wisemen! Bestow upon me divine qualities of God-mercy, wealth and prosperity combined with knowledge which should be firm and stable in my life. I should accept that wealth and riches for the propagation of good virtues like education or for the benefit of the world at large and for the administration of my country.
Here ends the second part of Aryabhivinaya written by Swami Dayānanda Saraswati the diciple of the Paramhansa, the great ascetic and the most learned Śri Swami Virjānanda Saraswati.
Translation
May this intellect and this valour of mine, both achieve glory. May the enlightened ones bestow finest glory on me. To you O glory, hail. (1)
Notes
Brahma, intellectual power. Kşatram, valour; ruling power; will and power to defend the weak. Śriyam aśnutām, may achieve glory; may grow and prosper. Tasyai te, to you the splendour (श्रियै).
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে পরমেশ্বর ! আপনার কৃপা এবং হে বিদ্বান্! আপনার পুরুষার্থ বলে (স্বাহা) সত্যাচরণ রূপ ক্রিয়া দ্বারা (মে) আমার (ইদম্) এইগুলি (ব্রহ্ম) বেদ, ঈশ্বরের বিজ্ঞান বা তাহার জ্ঞাতা পুরুষ (চ) এবং (ক্ষত্রম্) রাজ্য, ধনুর্বেদ বিদ্যা এবং ক্ষত্রিয়কুল (চ) ও এই (উভে) উভয়ে (শ্রিয়ম্) রাজ্যের লক্ষ্মীকে (অশ্নুতাম্) প্রাপ্ত হউক, যেমন (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ (ময়ি) আমার নিমিত্ত (উত্তমাম্) অতিশ্রেষ্ঠ (শ্রিয়ম্) শোভা বা লক্ষ্মীকে (দধতু) ধারণ করিবে । হে জিজ্ঞাসু ব্যক্তি, (তে) তোমার জন্যও (তস্যৈ) সেই শ্রী হেতু আমরা প্রযত্ন করিব ॥ ১৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সকল মনুষ্য পরমেশ্বরের আজ্ঞাপালন এবং বিদ্বান্দিগের সেবা সৎকার দ্বারা সকল মনুষ্যদিগের মধ্যে ব্রাহ্মণ, ক্ষত্রিয়কে সুন্দর শিক্ষা, বিদ্যাদি সদ্গুণ দ্বারা সংযুক্ত এবং সকলের উন্নতির বিধান করিয়া স্বীয় আত্মার তুল্য সকলের সহিত ব্যবহার করিবে তাহারা সকলের পূজনীয় হইবে ॥ ১৬ ॥
এই অধ্যায়ে পরমেশ্বর, বিদ্বান্ ও বুদ্ধি তথা ধনের প্রাপ্তির উপায়গুলির বর্ণনা হওয়ায় এই অধ্যায়ে কথিত অর্থের পূর্ব অধ্যায়ে কথিত অর্থ সহ সঙ্গতি জানা উচিত ॥
ইতি শ্রীমৎপরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়াণাং পরমবিদুষাং শ্রীয়ুতবিরজানন্দসরস্বতীস্বামিনাং শিষ্যেণ পরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়েণ শ্রীমদ্দয়ানন্দসরস্বতীস্বামিনা নির্মিতে সুপ্রমাণয়ুক্তে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে
য়জুর্বেদভাষ্যে দ্বাত্রিংশোऽধ্যায়ঃ পূর্ত্তিমগমৎ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ই॒দং মে॒ ব্রহ্ম॑ চ ক্ষ॒ত্রং চো॒ভে শ্রিয়॑মশ্নুতাম্ ।
ময়ি॑ দে॒বা দ॑ধতু॒ শ্রিয়॒মুত্ত॑মাং॒ তস্যৈ॑ তে॒ স্বাহা॑ ॥ ১৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ইদং ম ইত্যস্য শ্রীকাম ঋষিঃ । বিদ্বদ্রাজানৌ দেবতে । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
नेपाली (1)
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
हे महाविद्य ! महाराज ! सर्वेश्वर ! मे ब्रह्म= मेरा ब्रह्म अर्थात् विद्वान् र क्षत्रम् = राजा महाचतुर, न्यायकारी, शूरवीरक्षत्रिय उभे= ई दुवै तपाईंका अनन्त कृपा ले यथावत् अनुकूल हुन् । श्रियम् = सर्वोत्तम् विद्यादिलक्षण ले युक्त महाराज्यश्री मा हामी प्राप्त हौं । हे देवाः = विद्वज्जन ! तपाईंहरुले उत्तमांश्रियम् = दिव्य ईश्वर का गुण, परमकृपा आदि तथा विद्यादिलक्षणसमन्वित श्री लाई मँ मा दध - अचलता पूर्वक धारण गराउनु होस् तस्यै= तेस श्री लाई मँ अत्यन्त प्रीतिपूर्वक स्वीकार गरुँ र त्यो श्री लाई विद्यादि सद्गुण र सम्पूर्ण संसार को हित का लागी तथा राज्यादि प्रबन्ध का लागी व्यय गरूँ ॥५५॥
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