यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 2
ऋषिः - स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः
देवता - परमात्मा देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1476
सर्वे॑ निमे॒षा ज॑ज्ञिरे वि॒द्युतः॒ पुरु॑षा॒दधि॑।नैन॑मू॒र्द्ध्वं न ति॒र्य्यञ्चं॒ न मध्ये॒ परि॑ जग्रभत्॥२॥
स्वर सहित पद पाठसर्वे॑। नि॒मे॒षा इति॑ निऽमे॒षाः। ज॒ज्ञि॒रे॒। वि॒द्युत॒ इति॑ वि॒ऽद्युतः॑। पुरु॑षात्। अधि॑। न। ए॒न॒म्। ऊर्द्ध्वम्। न। ति॒र्य्यञ्च॑म्। न। मध्ये॑। परि॑। ज॒ग्र॒भ॒त् ॥२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि । नैनमूर्ध्वन्न तिर्यञ्चन्न मध्ये परिजग्रभत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
सर्वे। निमेषा इति निऽमेषाः। जज्ञिरे। विद्युत इति विऽद्युतः। पुरुषात्। अधि। न। एनम्। ऊर्द्ध्वम्। न। तिर्य्यञ्चम्। न। मध्ये। परि। जग्रभत्॥२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यस्माद् विद्युतः पुरुषात् सर्वे निमेषा अधि जज्ञिरे तमेनं कोऽपि नोर्ध्वं न तिर्य्यञ्चं न मध्ये परि जग्रभत् तं यूयं सेवध्वम्॥२॥
पदार्थः
(सर्वे) (निमेषाः) नेत्रोन्मीलनादिलक्षणाः कलाकाष्ठादिकालाऽवयवाः (जज्ञिरे) जायन्ते (विद्युतः) विशेषेण द्योतमानात् (पुरुषात्) पूर्णाद्विभोः (अधि) (न) निषेधे (एनम्) परमात्मानम् (ऊर्द्ध्वम्) उपरिस्थम् (न) (तिर्य्यञ्चम्) तिर्य्यक् स्थितमधस्थं वा (न) (मध्ये) (परि) सर्वतः (जग्रभत्) गृह्णाति॥२॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! यस्य निर्माणेन सर्वे कालावयवा जाता यच्चोर्ध्वमधो मध्ये पार्श्वतो दूरे निकटे वा कथयितुमशक्यं यत् सर्वत्र पूर्ण ब्रह्माऽस्ति तद्योगाभ्यासेन विज्ञाय सर्वे भवन्त उपासीरन्॥२॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जिस (विद्युतः) विशेषकर प्रकाशमान (पुरुषात्) पूर्ण परमात्मा से (सर्वे) सब (निमेषाः) कला, काष्ठा आदि काल के अवयव (अधि, जज्ञिरे) अधिकतर उत्पन्न होते हैं, उस (एनम्) इस परमात्मा को कोई भी (न) न (ऊर्ध्वम्) ऊपर (न) न (तिर्य्यञ्चम्) तिरछा सब दिशाओं में वा नीचे और (न) न (मध्ये) बीच में (परि, जग्रभत्) सब ओर से ग्रहण कर सकता है, उसको तुम सेवो॥२॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! जिसके रचने से सब काल के अवयव उत्पन्न हुए और जो ऊपर, नीचे, बीच में, पीछे, दूर, समीप कहा नहीं जा सकता, जो सर्वत्र पूर्ण ब्रह्म है, उसको योगाभ्यास से जान के सब आप लोग उपासना करो॥२॥
पदार्थ
पदार्थ = ( विद्युतः ) = विशेष प्रकाशमान ( पुरुषात् ) = सर्वत्र पूर्ण परमात्मा से ( सर्वे ) = सब ( निमेषा: ) = उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयादि क्रियाएँ ( अधिजज्ञिरे ) = उत्पन्न होती हैं। कोई भी ( एनम् ) = इस को ( न ऊर्ध्वम् ) = न ऊपर से ( न तिर्य्यञ्चम् ) = न तिरछे ( न मध्ये ) = न बीच में से ( परिजग्रभत् ) = सब ओर से ग्रहण कर सकता है ।
भावार्थ
भावार्थ = जिस सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् प्रकाशमान पूर्ण परमात्मा से, क्षण, घटिका, दिन, रात्रि काल के सब अवयव उत्पन्न हुए हैं, और जिससे सारे जगतों की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, नियमनादि होते हैं, उस जगत्पिता परमात्मा को, कोई भी नीचे, ऊपर, बीच में से वा तिरछे ग्रहण नहीं कर सकता। ऐसे पूर्ण जगदीश परमात्मा को योगाभ्यास, ध्यान, उपासनादि साधनों से ही जिज्ञासु पुरुष जान सकता है, अन्यथा नहीं ।
विषय
उससे समस्त संसार की उत्पत्ति ।
भावार्थ
( विद्युतः) विद्धुत् जैसे (निमेषाः) निमेष होते हैं, अर्थात् मेघस्थ विद्धुत् जैसे सहस्रों बार चमकती और सहस्रों बार छिप छिप जाती है, वे सब विलास उसी से उत्पन्न होते हैं और जैसे (विद्युत) विशेष तेजस्वी सूर्य से (निमेषाः) दिन और रात्रि उत्पन्न होते हैं, अथवा जिस प्रकार सूर्य के (निमेषाः) नियम से बराबर 'मेष' आदि राशि प्रवेश राशि के संक्रमण से मास और वर्ष उत्पन्न होते हैं, अथवा निमेष त्रुटि, काष्ठा, विपल, पल, घड़ी, होरा, यांम, दिन, पक्ष, मास, वर्ष आदि सभी उत्पन्न होते हैं, अथवा – सूर्य से निरन्तर वर्षणशील मेघ उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार ( विद्धुतः पुरुषात् ) विशेष द्धुति से प्रकाशमान्, समस्त जगत् के प्रकाशक पूर्ण परमेश्वर से (सर्वे निमेषाः) समस्त निमेष, अध्यात्म में नेत्रादि इन्द्रियों के निमीलन, उन्मीलन, सूर्य से, कला, काष्ठा आदि काल के अवयव और जगत् के उत्पत्ति, स्थित, प्रलय तथा निरन्तर होने वाला उत्पाद और विनाश सब (अधिजज्ञिरे) उत्पन्न होते हैं । कोई भी ( एनम् ) उसको (न तिर्यञ्चम् ) न तिरछे, ( न ऊर्ध्वम् ) न ऊपर से और (न मध्ये) न बीच में से (परिजग्रभत् ) ग्रहण करता है, अर्थात् उसको किसी विशेष अंग से भी पकड़ा नहीं जा सकता, उसका पूर्ण ज्ञान नहीं किया जा सकता । स एष् नेति नेत्यात्मा अगृह्यो नहि गृह्यते । बृहदारण्यकोप० ॥ (२) राजा के पक्ष में — विशेष तेजस्वी पुरुष से राष्ट्र के समस्त निमेष, छोटे बड़े कार्य उत्पन्न होते हैं । उसको कोई ऊपर से, बीच में से, या तिरछे भी नहीं पकड़ सकता । कोई उसको वश नहीं कर सकता ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परमात्मा । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
वह सञ्चालक प्रभु
पदार्थ
१. (सर्वे) = सारे (निमेषाः) = आँखों के पलक गिरने आदि छोटे-से-छोटे व्यापार भी (विद्युतः) = उस विशेषरूप से देदीप्यमान (पुरुषात्) = ब्रह्माण्डरूप पुरी में निवास करनेवाले [पुरि वसतीति पुरुषः] पुरुष के (अधि जज्ञिरे) = अधिष्ठातृत्व में ही हो रहे हैं। उस अध्यक्ष से ही प्रकृति चराचर को जन्म दे रही है।' ब्रह्माण्ड की गाड़ी उस प्रभु से ही चलाई जाती है। २. प्रश्न होता है कि जीव की क्या स्थिति है? जीव की स्थिति वही है, जो यात्रियों की । गाड़ी ड्राइवर चला रहा है, चल गाड़ी रही है, यात्री नहीं, परन्तु यह सब किसलिए? यात्रियों के लिए। यदि यात्री न हों तो गाड़ियों की आवश्यकता ही न हो। यात्री की कितनी महिमा है ! यह सब इस यात्री जीव के लिए ही तो है। प्रकृति उसकी गाड़ी है, प्रभु उसके ड्राइवर, परन्तु क्या यात्री अपनी इस महिमा के अंहकार में ट्रेन के ड्राईवर को यह कह सकता है कि दिल्ली नहीं गाड़ी मथुरा ले चलो। यह तो ठीक है कि हम मथुरा जानेवाली गाड़ी का टिकट लें और मथुरावाली गाड़ी में बैठें, परन्तु मथुरावाली टिकट लेकर दिल्ली नहीं आ सकते । ३. उस प्रभु को (न एनम् ऊर्ध्वम्) = न इसको 'ऊपर' इस रूप में ग्रहण कर सकते हैं। (न) = न ही (तिर्य्यञ्चम्) = टेढ़े crosswise एक ओर से दूसरी ओर किसी स्थानविशेष में ग्रहण कर सकते हैं और न मध्ये न ही बीच में परि जग्रभत् = ग्रहण कर सकते हैं। वे प्रभु सर्वव्यापक हैं और इस सम्पूर्ण यन्त्रजाल को ट्रेन के समूह को चला रहे हैं।
भावार्थ
भावार्थ- पत्ता- पत्ता उस प्रभु के प्रशासन में हिल रहा है। वे प्रभु कण-कण में व्याप्त है. किसी देशविशेष में स्थित नहीं हैं, इसी से सारे ब्रह्माण्ड को गति दे रहे हैं।
मन्त्रार्थ
(सर्वे निमेषाः) सब ही निरन्तर गति करने वाले क्षण मुहूर्त्त घडी प्रहर दिन रात पक्ष मास ऋतु अयन संवत्सर, ग्रह नक्षत्र वायु किरण आदि (विद्यतः पुरुषात् अधि जज्ञिरे) विशेषतः द्योतमान पुरुष सर्वत्र पूर्ण परमात्मा से उत्पन्न हुए उसके अधीन गति करते हैं (एनं न-ऊर्ध्वं न तिर्यचं न मध्ये परि जग्रभत्) इस विद्युत् पुरुष-स्थूल पुरुष पूर्ण परमात्मा को न ऊर्ध्व भाव से न तिरछे न मध्य में होने वाले मध्यम भाव से कोई भी निरन्तर गति करने वाला सर्व भाव से ग्रहण कर सकता है, उसकी सीमा नहीं पासकता है उस असीम में एकदेशी बनकर ही गति करता है ॥२॥
विशेष
ऋषिः-स्वयम्भु ब्रह्म १-१२ । मेधाकामः १३-१५ । श्रीकामः १६ ।। देवताः-परमात्मा १-२, ६-८ १०, १२, १४। हिरण्यगर्भः परमात्मा ३ । आत्मा ४ । परमेश्वरः ५ । विद्वान् । इन्द्रः १३ । परमेश्वर विद्वांसौ १५ । विद्वद्राजानौ १६ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
हे माणसांनो ! ज्याने काळाचे निमेष वगैरे अवयव निर्माण केलेले आहेत व ज्याच्यासंबंधी वर, खाली, दूर, जवळ, असे विधान करता येत नाही. जे सर्वत्र पूर्ण ब्रह्म आहे त्याला योगाभ्यासाने जाणा व त्याची उपासना करा.
विषय
पुन्हा त्याच विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, ज्या (विद्युतः) विशेषण प्रकाशन (प्रसिद्ध वा गुणवान) (पुरूषात्) पूर्ण परमेश्वरापासून (सर्वे) सर्व (निमेषाः) निमेष, कला, काष्ठा आदी कालाचे अवयव (क्षर, प्रहर, दिन, रात्र, पळ, घटिका आदी)(अधिजज्ञिरे) अधिकतर उत्पन्न झाले आहेत वा होतात (क्षण, निमेष, प्रहर, घटिका. आदी समयाचे विभाग परमेश्वराने निर्माण केले व मानवाला त्याचे ज्ञान दिले. ईश्वराने ते भाग-विभाग दिले नसते, तर मानवाला कालाचे विभाग करण्याची युक्ती सुचली नसती, हा आशय वाटतो) (एनम्) अशा त्या परमेश्वराच्या कोणीही (ऊर्ध्वम्) वर (न) नाही, (न) तसेच (तिर्यञ्चम्) तिरका वा सर्व दिशात विद्यमानही (न) नाही वा खाली नाही. (मध्ये) सर्वाच्या मधे आणि सर्व त्याच्यामधे असल्यामुळे (परि, जग्रभत्) सर्व दिशांतून तो सर्वांना ग्रहण करून विद्यमान आहे. हे मनुष्यांनो, तुम्ही त्या परमेश्वराचीच उपासना करा ॥2॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यांनो, ज्याने निर्मित केल्यामुळे काळाचे (वेळ व समयाचे) सर्व विभाग उत्पन्न जाले (त्याची उपासना करा) तसेच ज्याच्या विषयी असे म्हणता येत नाही की तो आमच्या खाली, मधे, वर, मागे, दूर वा जवळ आहे, कारण तो सर्वत्र असून पूर्णब्रह्म आहे, त्या पूर्णब्रह्माला तुम्ही योगाभ्यासाद्वारे जाणा आणि त्याचीच उपासना करा. ॥2॥
इंग्लिश (3)
Meaning
All divisions of time sprang from the Resplendent, Perfect God. No one hath comprehended Him from above, across; or in the midst.
Meaning
From the brilliant supreme Purusha are born all the divisions of time from the moment onward, and all the movements from the twinkling of the eye onward. No one can ever catch or hold this Lord from above or middle or crosswise.
Translation
All the time factors have sprung from that blazing Cosmic Man. No one comprehends Him existing above, below, or in the middle. (1)
Notes
Nimeṣaḥ, all those, that blink. ये निमिषंति । All the living creatures. Also, the stars, that blink (twinkle); time-factors. Vidyutaḥ, विशेषण द्युतिमत:, from Him, who shines like lightning (the brightest conceivable light). Na parijagrabhat,न परिगृह्णाति , does not comprehend. Just as one cannot comprehend the exact shapes of the lightning, even so no one knows the apex, middle or lower end of the Su preme Being. स एष नेति नेत्यात्माऽगृह्यो न हि गृह्यते, this Supreme Self is never comprehended.
बंगाली (2)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যাহা (বিদ্যুতঃ) বিশেষ করিয়া প্রকাশমান (পুরুষাৎ) পূর্ণ পরমাত্মা হইতে (সর্বে) সকল (নিমেষাঃ) কলা কাষ্ঠাদি কালের অবয়ব (অধি, জজ্ঞিরে) অধিকতর উৎপন্ন হয়, সেই (এনম্) এই পরমাত্মাকে কেহই (ন) না (ঊর্ধবম্) উপরে, (ন) না (তির্য়ঞ্চম্) তির্য্যক, সকল দিকে অথবা নিম্নে এবং (ন) না (মধ্যে) মধ্যে (পরি, জগ্রভৎ) সব দিক দিয়া গ্রহণ করিতে পারে, তাহাকে তোমরা সেবন কর ॥ ২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যাহার রচনা হইতে সকল কালের অবয়ব উৎপন্ন হইয়াছে এবং যিনি উপরে, নিম্নে, মধ্যে, পিছনে, দূরে, সমীপে বলা যেতে পারে না, যিনি সর্বত্র পূর্ণ ব্রহ্ম তাহাকে যোগাভ্যাস দ্বারা জানিয়া আপনারা সকলে তাহার উপাসনা করুন ॥ ২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সর্বে॑ নিমে॒ষা জ॑জ্ঞিরে বি॒দ্যুতঃ॒ পুর॑ুষা॒দধি॑ ।
নৈন॑মূ॒র্দ্ধ্বং ন তি॒র্য়্যঞ্চং॒ ন মধ্যে॒ পরি॑ জগ্রভৎ ॥ ২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সর্ব ইত্যস্য স্বয়ম্ভু ব্রহ্ম ঋষিঃ । পরমাত্মা দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
সর্বে নিমেষা জজ্ঞিরে বিদ্যুতঃ পুরুষাদধি ।
নৈনমূর্ধ্বং ন তির্য্যশ্চং ন মধ্যে পরি জগ্রভৎ।।১১।
(যজু ৩২।২)
পদার্থঃ (বিদ্যুতঃ) বিশেষ প্রকাশমান, (পুরুষাৎ) সর্বত্র পূর্ণ পরমাত্মা থেকে (সর্বে) সকল (নিমেষা) উৎপত্তি স্থিতি প্রলয়াদি ক্রিয়াসমূহ (অধিজজ্ঞিরে) উৎপন্ন হয়। কেউ (এনম্) এঁকে (ন ঊর্ধ্বম্) না ওপর হতে, (ন তির্য্যশ্চম্) না তীর্যক হতে, (ন মধ্যে) না মধ্য হতে (পরিজগ্রভৎ) সকল দিক হতে ধারণ পারে।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ যে সর্বজ্ঞ ও সর্বশক্তিমান প্রকাশমান পূর্ণ পরমাত্মা থেকে ক্ষণ, ঘটিকা, দিন, রাত্রি সহ সকল কালের সকল অবয়ব উৎপন্ন হয় এবং তাঁর দ্বারা সমস্ত জগতের উৎপত্তি স্থিতি প্রলয় নিয়মাদি হয়; সেই জগৎ পিতা পরমাত্মাকে কেউ নিচে, ঊর্ধ্বে বা তীর্যকভাবে ধারণ পারে না। সেই পূর্ণ জগদীশ পরমাত্মাকে যোগাভ্যাস, ধ্যান, উপাসনাদি সাধন দ্বারাই জিজ্ঞাসু ব্যক্তি জানতে পারেন, অন্যথা নয়।।১১।।
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