यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 15
ऋषिः - मेधाकाम ऋषिः
देवता - परमेश्वरविद्वांसौ देवते
छन्दः - निचृद् बृहती
स्वरः - मध्यमः
177
मे॒धां मे॒ वरु॑णो ददातु मे॒धाम॒ग्निः प्र॒जाप॑तिः। मे॒धामिन्द्र॑श्च वा॒युश्च॑ मे॒धां धा॒ता द॑दातु मे॒ स्वाहा॑॥१५॥
स्वर सहित पद पाठमे॒धाम्। मे॒। वरु॑णः। द॒दा॒तु॒। मे॒धाम्। अ॒ग्निः। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः ॥ मे॒धाम्। इन्द्रः॑। च॒। वा॒युः। च॒। मे॒धाम्। धा॒ता। द॒दा॒तु॒। मे॒। स्वाहा॑ ॥१५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मेधाम्मे वरुणो ददातु मेधामग्निः प्रजापतिः । मेधामिन्द्रस्च वायुश्च मेधान्धाता ददातु मे स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
मेधाम्। मे। वरुणः। ददातु। मेधाम्। अग्निः। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः॥ मेधाम्। इन्द्रः। च। वायुः। च। मेधाम्। धाता। ददातु। मे। स्वाहा॥१५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यथा वरुणः परमेश्वरो विद्वान् वा स्वाहा मे मेधां ददातु, अग्निः प्रजापतिर्मेधां ददातु, इन्द्रो मेधां ददातु, वायुश्च मेधां ददातु, धाता च मे मेधां ददातु तथा युष्मभ्यमपि ददातु॥१५॥
पदार्थः
(मेधाम्) शुद्धां धियं धनं वा (मे) मह्यम् (वरुणः) श्रेष्ठः (ददातु) (मेधाम्) (अग्निः) विद्याप्रकाशितः (प्रजापतिः) प्रजायाः पालकः (मेधाम्) (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् (च) (वायुः) बलिष्ठो बलप्रदः (च) (मेधाम्) (धाता) सर्वस्य संसारस्य राज्यस्य (ददातु) (मे) मह्यम् (स्वाहा) धर्म्यया क्रियया॥१५॥
भावार्थः
मनुष्या यथाऽऽत्मार्थं गुणकर्मस्वभावं सुखञ्चेच्छेयुस्तादृशमेवाऽन्यार्थम्। यथा स्वस्योन्नतये प्रार्थयेयुस्तथा परमेश्वरस्य विदुषाञ्च सकाशादन्येषामपि प्रार्थयेयुर्न केवलं प्रार्थनामेव कुर्य्युः, किं तर्हि सत्याचरणमपि। यदा यदा विदुषां समीपं गच्छेयुस्तदा तदा सर्वेषां कल्याणाय प्रश्नोत्तराणि कुर्य्युः॥१५॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे (वरुणः) अति श्रेष्ठ परमेश्वर वा विद्वान् (स्वाहा) धर्मयुक्त क्रिया से (मे) मेरे लिये (मेधाम्) शुद्ध बुद्धि वा धन को (ददातु) देवे, (अग्निः) विद्या से प्रकाशित (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक (मेधाम्) बुद्धि को देवे, (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य्यवान् (मेधाम्) बुद्धि को देवे (च) और (वायुः) बलदाता बलवान् (मेधाम्) बुद्धि को देवे (च) और (धाता) सब संसार वा राज्य का धारण करनेहारा ईश्वर वा विद्वान् (मे) मेरे लिये बुद्धि धन को (ददातु) देवे, वैसे तुम लोगों को भी देवे॥१५॥
भावार्थ
मनुष्य जैसे अपने लिये गुण, कर्म, स्वभाव और सुख को चाहे वैसे औरों के लिये भी चाहें, जैसे अपनी उन्नति की चाहना करें, वैसे परमेश्वर और विद्वानों के निकट से अन्यों की उन्नति की प्रार्थना करें। केवल प्रार्थना ही न करें, किन्तु सत्य आचरण भी करें। जब-जब विद्वानों के निकट जावें तब-तब सबके कल्याण के लिये प्रश्न और उत्तर किया करें॥१५॥
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे सर्वोत्कृष्टेश्वर! आप (वरुण:) वर (वरणीय) आनन्दस्वरूप हो, स्वकृपा से मुझको (मेधाम्) मेधा सर्व विद्यासम्पन्न बुद्धि दीजिए तथा (अग्निः विज्ञानमय), विज्ञानप्रद (प्रजापतिः) सब संसार के अधिष्ठाता, पालक (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (वायुः) विज्ञानवान्, अनन्तबल (धाता) तथा सब जगत् का धारण और पोषण करनेवाले आप (मे मेधां ददातु) मुझको अत्युत्तम मेधा [बुद्धि] दीजिए (स्वाहा) इस प्रार्थना को आप प्रीति से स्वीकार कीजिए ॥ ५४ ॥
टिपण्णी
१. अनेक वार माँगना ईश्वर से अत्यन्त प्रीतिद्योतनार्थ और सद्यः दानार्थ है। बुद्धि से उत्तम पदार्थ कोई नहीं है। उसके होने से जीव को सब सुख होते हैं, इस हेतु से बारम्बार परमात्मा से बुद्धि की ही याचना करना श्रेष्ठ बात है । - महर्षि
विषय
उससे मेधा बुद्धि की प्रार्थना ।
भावार्थ
(वरुणः) सर्वश्रेष्ठ, सब दुःखों का वारण करने वाला परमेश्वर ( मे मेधाम् ददातु ) मुझे मेधा, प्रज्ञा, बुद्धि प्रदान करे । (अग्नि) ज्ञान- स्वरूप (प्रजापतिः) प्रजा का स्वामी, आचार्य और परमेश्वर ( मेधाम् ) मेधा प्रदान करे । (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर और ( वायुः च ) सर्वज्ञ, सर्वव्यापक परमेश्वर ( मे मेधाम् ददातु ) मुझे मेधा बुद्धि प्रदान करे । (धाता) सबका पोषक परमेश्वर (स्वाहा ) उत्तम उपदेश वाणी द्वारा (मे मेघां दधातु) मुझे मेधा बुद्धि प्रदान करे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परमेश्वरविद्वांसौ । निचृद् बृहती । मध्यमः ॥
विषय
धारण-मार्ग
पदार्थ
१. (मे) = मुझे (वरुणः) = वरुण (मेधाम्) = बुद्धि को ददातु दे। वरुण का अर्थ है जो वरण करता है [one who elects] और इस प्रकार श्रेष्ठ [ वरुण वर= श्रेष्ठ] बनता है। संसार में 'प्रेय व श्रेय' में यदि मन्दबुद्धिता से मैंने प्रेय का वरण कर लिया तो लक्ष्य तक न पहुँच पाऊँगा । श्रेय का वरण करके श्रेष्ठ और श्रेष्ठतर बनता चलूँगा । 'प्रातः उठना' व 'प्रातः सो लेना' इसमें मैं जागरण का ही वरण करूँ, सोने का नहीं। २. (अग्निः) = अग्नि नामक प्रभु मुझे (मेधाम्) = बुद्धि दें। इस बुद्धि पर ही तो मेरी सारी अग्रगति व उन्नति निर्भर करती है। बौद्धिक प्रकर्ष ही उन्नति का मापक है। ३. (प्रजापतिः) = सब प्रजाओं के रक्षक प्रभु मुझे बुद्धि दें। उन्नत होकर मुझे प्रजा की रक्षा में लगना है। ४. (इन्द्रः च) = और इन्द्र मुझे (मेधाम्) = बुद्धि दे। मेरी बुद्धि मुझे जितेन्द्रियता की ओर प्रेरित करे। मैं अपनी इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनूँ। ५. (वायुः च) = और वायु मुझे बुद्धि दे। 'वा गतौ' मैं सदा क्रियाशील बना रहूँ। क्रियाशीलता से ही तो इन्द्रियों की शक्ति बनी रहेगी और वे कुमार्ग में न जाएँगी। आलस्य ही सब व्यसनों का मूल है। ६. (धाता) = सर्वधारक प्रभु (मे) = मुझे (मेधाम्) = बुद्धि (दधातु) = धारण कराए। (स्वाहा) = इस बुद्धि के धारण के लिए मैं त्याग करता हूँ। बुद्धि के द्वारा ही मैं अपना धारण करनेवाला बनता हूँ। वस्तुतः प्रभु के उक्त नामों में धारण के मार्ग का संकेत है। [क] ठीक चुनाव करके [वरुण], आगे और आगे बढ़ते चलना [अग्नि], निजू उन्नति करके प्रजारक्षण कार्य में लगे रहना [प्रजापति], प्रजारक्षण की योग्यता - वृद्धि के लिए जितेन्द्रिय बनना [इन्द्र], और जितेन्द्रियता के लिए सदा क्रियाशील जीवन बिताना [वायु] यही धारण मार्ग है [ धाता ] । जो मनुष्य अपना धारण व अविनाश चाहता है, उसे उल्लिखित मार्ग ही अपनाना होगा। ७. धारण के लिए, विनाश से बचने के लिए प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'मेधाकाम' मेधा की कामना करता है। मेधा प्राप्त करके यह योग्य मार्ग का वरण करता है, उसपर चलकर यह अधिकाधिक उन्नत होता चलता है और प्रजारक्षण के कार्य में व्याप्त रहकर यह जितेन्द्रिय बनता है, सदा क्रियाशील रहता है। इस प्रकार अपना धारण करता हुआ यह वास्तविक 'श्री' को प्राप्त करता है। इस 'श्री' का ही उल्लेख अगले मन्त्र में है।
भावार्थ
भावार्थ- मैं ' वरुण, अग्नि, प्रजापति, इन्द्र, वायु व धाता' इन नामों से सूचित मार्ग को अपनाऊँ। मेरी बुद्धि श्रेष्ठ हो और ठीक मार्ग को अपनाकर मैं अपना धारण कर सकूँ।
मन्त्रार्थ
(वरुणः-मे मेधाम्) वरुण-जल मेरे लिए मेधा को (ददातु) देवे (अग्निः प्रजापति:) अग्नि प्रजा-प्राणिप्रजा का स्वामी या पालक मेरे लिये मेधा को (इन्द्रः च वायुः च मेधाम्) विद्युत् और वायु मेरे लिये मेधा को (धाता में मेधाम्) सूर्य मेरे लिये मेधा को (ददातु) देवे इन देवों के विज्ञान से मेधा का विकास होता है (स्वाहा) यह अच्छा कथन है ॥१५॥
विशेष
ऋषिः-स्वयम्भु ब्रह्म १-१२ । मेधाकामः १३-१५ । श्रीकामः १६ ।। देवताः-परमात्मा १-२, ६-८ १०, १२, १४। हिरण्यगर्भः परमात्मा ३ । आत्मा ४ । परमेश्वरः ५ । विद्वान् । इन्द्रः १३ । परमेश्वर विद्वांसौ १५ । विद्वद्राजानौ १६ ॥
मराठी (3)
भावार्थ
माणसे आपल्यासाठी जसे गुण, कर्म, स्वभाव व सुख यांची इच्छा बाळगतात तशीच इतरांसाठीrही बाळगावी. आपल्या उन्नतीची जशी इच्छा बाळगतात तशीच प्रार्थना परमेश्वर व विद्वान यांच्या सान्निध्याने इतरांसाठीही करावी. केवळ प्रार्थनाच करू नये, तर सत्याचे आचरणही करावे. जेव्हा विद्वानांची संगती लाभेल तेव्हा सर्वांच्या कल्याणासाठी प्रश्नोत्तरे करावीत.
विषय
पुनश्च तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (वरूणः) अतिश्रेष्ठ परमेश्वराने अथवा विद्वानांने (स्वाहा) धर्म वा नीतिमय मार्गाने (मे) मला (मेधाम्) शुद्ध बुद्धी वा विचार आणि धन (ददातु) द्यावे. (अग्निः) विद्येमुळे मला बुद्धि वा सद्विचार द्यावेत, आणि (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान परमेश्वराने मला (मेधाम्) बुद्धी द्यावी (च) आणि (वायुः) बलदाता परमेश्वराने मला (मेधाम्) बुद्धी द्यावी (च) आणि (धाता) सर्व संसाराचा जो राजा त्या ईश्वराने वा राज्याला धारण करणार्या विद्वान राजाने (मे) मला ज्याप्रमाणे बुद्धी आणि धन (ददातु) द्यावे, त्याप्रमाणे, लोकही, तुम्ही सर्वसामान्य जनांनाही बुद्धी व धन द्यावे ॥15॥
भावार्थ
भावार्थ - माणसाने जसे आपल्याकरिता उत्तम गुण, कर्म कामना करावी, ज्याप्रमाणे मनुष्याने स्वतःच्या उन्नती-प्रगतीची कामना करावी, तशी परमेश्वराजवळ आणि विद्वानांजवळ इतरांकरिताही केली पाहिजे. तशी केवळ प्रार्थनाच करू नये, तर त्यासाठी यत्न व आचरण ही केले पाहिजे. ज्या ज्या वेळी माणूस विद्वानांजवळ जाईल, त्या त्या वेळी त्याने सर्वांच्या कल्याणाकरिता प्रश्न विचारावेत आणि त्यांची उत्तरें विद्वानांकडून जाणून घ्यावीत ॥15॥
विषय
प्रार्थना
व्याखान
हे सर्वोत्कृष्ट ईश्वरा ! तू (वरुणः) वरण करण्यायोग्य व आनंदस्वरूप आहेस. कृपा करून (मेधाम्) म्हणजे सर्व विद्यासंपन्न अशी बुद्धी दे. व (अग्निः) तू विज्ञानमय असून विज्ञान देणारा आहेस. (प्रजापतिः) सर्व जगाचा अधिष्ठता असून सर्वांचा पालक आहेस. (इन्द्र) परम ऐश्वर्यवान आहेस. (वायुः) विज्ञानयुक्त व अनंत बलवान आहेस. (धाता) सर्व जगाचा पालन पोषण करणारा आहेस. तेव्हा मला उत्कृष्ट मेधा बुद्धी दे.॥५४॥
इंग्लिश (4)
Meaning
May the Supreme God grant me wisdom, in consonance with the performance of religious duty. May the Omniscient God and Protector of man grant me wisdom. May the Omnipotent God grant me wisdom, May the Almighty Father grant me wisdom, May the Ruler of the universe grant me wisdom.
Meaning
May Varuna, supreme lord of the universe, and the scholar of highest knowledge, bless me with supreme intelligence. May Agni, lord of universal light, and the eminent scholar and teacher, bless me with discriminative intelligence. May Prajapati, guardian sustainer of creation, and the generous scholar, bless me with generous and life- sustaining intelligence. May Indra, lord of universal grandeur, and the leader of honour and power, bless me with honourable intelligence. May Vayu, lord of universal energy and power, and the scholar of science and technology, bless me with intellectual and vitalizing intelligence. May Dhata, lord preserver of the universe, and scholar of life-sciences, bless me with life-preserving intelligence This is the divine voice from the heart.
Purport
O Omniscient Lord ! O Supreme Soul ! Kindly make me intelligent soon, with that wisdom-intelligence; which is cherished, wanted and prayed for by learned scholars and protectors of human society equipped with the knowledge of physical sciences. It is my heart-felt desire. By Your Love and Mercy do accept it, so that all the dullness of my mind should vanish.
Footnote
1. Demanding again and again from God denotes utmost love and bestowing soon. Nothing is better than wisdom in the world. By gaining wisdom man acquires all kinds of happiness. For this reason praying to God for wisdom again and again is the most excellent thing. -Maharsi
Translation
May the Lord of justice bestow wisdom on me; may the adorable Lord and the Lord of all creatures bless me with the wisdom; may the resplendent Lord and the Creator grant me wisdom. Svaha. (1)
बंगाली (2)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন (বরুণঃ) অতি শ্রেষ্ঠ পরমেশ্বর বা বিদ্বান্ (স্বাহা) ধর্মযুক্ত ক্রিয়া দ্বারা (মে) আমার জন্য (মেধাম্) শুদ্ধ বুদ্ধি বা ধনকে (দদাতু) প্রদান করিবে, (অগ্নিঃ) বিদ্যা দ্বারা প্রকাশিত (প্রজাপতিঃ) প্রজার রক্ষক (মেধাম্) বুদ্ধিকে প্রদান করিবে, (ইন্দ্রঃ) পরম ঐশ্বর্য্যবান্ (মেধাম্) বুদ্ধিকে প্রদান করিবে (চ) এবং (বায়ুঃ) বলদাতা বলবান্ (মেধাম্) বুদ্ধিকে প্রদান করিবে (চ) এবং (ধাতা) সকল সংসার বা রাজ্যের ধারক ঈশ্বর বা বিদ্বান্ (মে) আমার জন্য বুদ্ধি ধনকে (দদাতু) প্রদান করিবে তদ্রূপ তোমাদিগকে প্রদান করিবে ॥ ১৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–মনুষ্য যেমন নিজের জন্য গুণ, কর্ম, স্বভাব ও সুখ চাহে তদ্রূপ অন্যদের জন্য চাহিবে । যেমন নিজের উন্নতির কামনা কর সেইরূপ পরমেশ্বর ও বিদ্বান্দের নিকট হইতে অন্যান্যদের উন্নতির জন্য প্রার্থনা করিবে । কেবল প্রার্থনাই করিবে না কিন্তু সত্য আচরণও করিবে । যখন যখন বিদ্বান্দিগের নিকটে যাইবে তখন তখন সকলের কল্যাণ হেতু প্রশ্ন ও উত্তর করিতে থাকিবে ॥ ১৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
মে॒ধাং মে॒ বর॑ুণো দদাতু মে॒ধাম॒গ্নিঃ প্র॒জাপ॑তিঃ ।
মে॒ধামিন্দ্র॑শ্চ বা॒য়ুশ্চ॑ মে॒ধাং ধা॒তা দ॑দাতু মে॒ স্বাহা॑ ॥ ১৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
মেধামিত্যস্য মেধাকাম ঋষিঃ । পরমেশ্বরবিদ্বাংসৌ দেবতে । নিচৃদ্ বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
মেধাং মে বরুণো দদাতু মেধামগ্নিঃ প্রজাপতি।
মেধামিন্দ্রশ্চ বায়ুশ্চ মেধাং ধাতা দদাতু মে স্বাহা।।৩৯।।
(যজুর্বেদ ৩২।১৫)
পদার্থঃ হে (বরুণঃ) সর্বশ্রেষ্ঠ পরমেশ্বর! (মে মেধাম্) আমাকে মেধা (দদাতু) প্রদান করো। (অগ্নিঃ) হে জ্ঞানস্বরূপ (প্রজাপতি) প্রজাপালক পরমেশ্বর! (মেধাম্) মেধা প্রদান করো। (ইন্দ্রঃ) ঐশ্বর্যবান (চ) এবং (বায়ুঃ) সর্বব্যাপক পরমেশ্বর! (মেধাম্) মেধা দান করো। (ধাতা) সবার পোষক পরমেশ্বর! (স্বাহা) উত্তম উপদেশ বাণী দ্বারা (মে মেধাম্) আমাকে মেধা (দদাতু) প্রদান করো।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ ইন্দ্র, বরুণ, বায়ু, অগ্নি সেই পরমাত্মারই গুণবাচক নাম। আমরা সেই পরমাত্মার নিকট প্রার্থনা করি যে, হে পরমাত্মন! আমাদের মেধা প্রদান করো। তোমার প্রদত্ত মেধা দ্বারা আমরা যেন আমাদের জ্ঞানের বৃদ্ধি করতে পারি এবং জগতের কল্যাণ তথা নিজের আত্মিক উন্নতি করতে পারি, এজন্য হে পরমাত্মন! আমাদেরকে মেধা প্রদান করো।।৩৯।।
नेपाली (1)
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे सर्वोत्कृष्ट ईश्वर ! तपाईं वरुणः = वर=वरणीय आनन्द स्वरूप हुनुहुन्छ, स्वकृपाले मँलाई मेधाम्= मेधा= सर्वविद्या सम्पन्न बुद्धि दिनु होस् । तथा अग्निः = विज्ञानमय र विज्ञानप्रद, प्रजापतिः= समस्त संसार का अधिठाता तथा पालक इन्द्रः= परम ऐश्वर्यवान् वायुः = विज्ञानवान् एवं अनन्तबल तथा धाता= सम्पूर्ण जगत् लाई धारण र पोषण गर्नुहुने प्रभु तपाईं ले मे मेधां ददातु= मँलाई अत्युत्तम मेधा [बुद्धि] दिनु होस् । स्वाहा = एस प्रार्थनालाई हजुर ले प्रीति पूर्वक स्वीकार गर्नु होला । ॥५४॥
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