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यजुर्वेद अध्याय - 32
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  • यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 8
    ऋषिः - स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः देवता - परमात्मा देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    557

    वे॒नस्तत्प॑श्य॒न्निहि॑तं॒ गुहा॒ सद्यत्र॒ विश्वं॒ भव॒त्येक॑नीडम्।तस्मि॑न्नि॒दꣳ सं च॒ वि चै॑ति॒ सर्व॒ꣳ सऽ ओतः॒ प्रोत॑श्च वि॒भूः प्र॒जासु॑॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वे॒नः। तत्। प॒श्य॒त्। निहि॑त॒मिति॒ निऽहि॑तम्। गुहा॑। सत्। यत्र॑। विश्व॑म्। भव॑ति। एक॑नीड॒मित्येकऽनीडम् ॥ तस्मि॑न्। इ॒दम। सम्। च॒। वि। च॒। ए॒ति॒। सर्व॑म्। सः। ओत॒ इत्याऽउ॑तः। प्रोत॒ इति॒ प्रऽउ॑तः। च॒। वि॒भूरिति॑ वि॒ऽभूः। प्र॒जास्विति॑ प्र॒ऽजासु॑ ॥८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेनस्तत्पश्यन्निहितङ्गुहा सद्यत्र विश्वम्भवत्येकनीडम् । तस्मिन्निदँ सञ्च वि चौति सर्वँसऽओतः प्रोतश्च विभूः प्रजासु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वेनः। तत्। पश्यत्। निहितमिति निऽहितम्। गुहा। सत्। यत्र। विश्वम्। भवति। एकनीडमित्येकऽनीडम्॥ तस्मिन्। इदम। सम्। च। वि। च। एति। सर्वम्। सः। ओत इत्याऽउतः। प्रोत इति प्रऽउतः। च। विभूरिति विऽभूः। प्रजास्विति प्रऽजासु॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 32; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यत्र विश्वमेकनीडं भवति तद्गुहा निहितं सद्वेनः पश्यत्। तस्मिन्निदं सर्वं समेति च व्येति च स विभूः प्रजास्वोतः प्रोतश्च स एव सर्वैरुपासनीयोऽस्ति॥८॥

    पदार्थः

    (वेनः) पण्डितो विद्वान् (तत्) चेतनं ब्रह्म (पश्यत्) पश्यति (निहितम्) स्थितम् (गुहा) गुहायां बुद्धौ गुप्ते कारणे वा (सत्) नित्यम् (यत्र) यस्मिन् (विश्वम्) सर्वम् जगत् (भवति) (एकनीडम्) एकस्थानम् (तस्मिन्) (इदम्) जगत् (सम्) (च) (वि) (च) (एति) (सर्वम्) (सः) (ओतः) ऊर्ध्वतन्तुः पट इव (प्रोतः) तिर्य्यक् तन्तुषु पट इव (च) (विभूः) व्यापकः (प्रजासु) प्रकृतिजीवादिषु॥८॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! विद्वानेव यं बुद्धिबलेन जानाति, यः सर्वेषामाकाशादीनां पदार्थानामधिकरणमस्ति, यत्र संहारकाले सर्वं जगल्लीयते सर्गकाले च यतो निस्सरति येन व्याप्तेन विना किञ्चिदपि वस्तु न वर्त्तते तं विहायाऽस्यां कञ्चिदप्युपास्यमीश्वरं मा विजानन्तु॥८॥

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    हिन्दी (6)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (यत्र) जिसमें (विश्वम्) सब जगत् (एकनीडम्) एक आश्रयवाला (भवति) होता (तत्) उस (गुहा) बुद्धि वा गुप्त कारण में (निहितम्) स्थित (सत्) नित्य चेतन ब्रह्म को (वेनः) पण्डित विद्वान् जन (पश्यत्) ज्ञानदृष्टि से देखता है, (तस्मिन्) उसमें (इदम्) यह (सर्वम्) सब जगत् (सम्, एति) प्रलय समय में संगत होता (च) और उत्पत्ति समय में (वि) पृथक् स्थूलरूप (च) भी होता है, (सः) वह (विभूः) विविध प्रकार व्याप्त हुआ (प्रजासु) प्रजाओं में (ओतः) ठाढ़े सूतों में जैसे वस्त्र (च) तथा (प्रोतः) आड़े सूतों में जैसे वस्त्र वैसे ओत-प्रोत हो रहा है, वही सबको उपासना करने योग्य है॥८॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! विद्वान् ही जिसको बुद्धि बल से जानता, जो सब आकाशादि पदार्थों का आधार, प्रलय समय सब जगत् जिसमें लीन होता और उत्पत्ति समय में जिससे निकलता है और जिस व्याप्त ईश्वर के बिना कुछ भी वस्तु खाली नहीं है, उसको छोड़ किसी अन्य को उपास्य ईश्वर मत जानो॥८॥

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    पदार्थ

    पदार्थ = ( वेन: ) = ब्रह्मज्ञानी पुरुष ( तत् ) = उस ब्रह्म को जो ( गुहानिहितम्  ) = बुद्धिरूपी गुफा में स्थित तथा ( सत् ) = तीन कालों में वर्त्तमान नित्य है, उसको  ( पश्यत् ) = अनुभव करता है, ( यत्र ) = जिस ब्रह्म में ( विश्वम् ) = सारा संसार  ( एक नीडम् ) = एक आश्रय को ( भवति ) =  प्राप्त होता है, ( तस्मिन् ) = उसी ब्रह्म में  ( इदम् सर्वम् ) =  यह सब जगत्  ( सम् एति च ) = प्रलयकाल में संगत होता है अर्थात् लीन होता है। और उत्पत्ति काल में  ( वि एति च ) = पृथक् स्थूल रूप को भी प्राप्त होता है । ( सः )  = वह जगदीश  ( विभूः ) = विविध प्रकार से व्याप्त हुआ  ( प्रजासु ) = प्रजाओं में  ( ओतः प्रोतः  च ) = ओत और प्रोत है । 

    भावार्थ

    भावार्थ = ब्रह्मज्ञानी पुरुष, उस ब्रह्म को अपनी बुद्धिरूपी गुफा में स्थित देखता है, जो ब्रह्म सत्य होने से नित्य त्रिकालों में अबाध्य और सारे संसार का आश्रय है, यह सब जगत् प्रलय काल में जिसमें लीन होता और उत्पत्ति काल में जिससे निकलकर स्थूलरूप को प्राप्त होता है, और बने हुए सब जगत् में व्यापक, वस्त्र में ताने-पेटे के समान सर्वत्र भरा हुआ है। ऐसे ब्रह्म को ब्रह्मज्ञानी जानता और अनुभव करता हुआ कृतार्थ होता है ।

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    विषय

    गुहा में दर्शन

    शब्दार्थ

    (यत्र) जिस ईश्वर में (विश्वम् ) समस्त संसार (एकनीडम् भवति ) एक घोंसले के समान तुच्छरूप में है (च) और (तस्मिन् इदम्, सर्व) उसी में यह समस्त संसार (सम् एति) चला जाता है, प्रलयकाल में उसी में विलीन हो जाता है (वि च) और सर्गारम्भ में उसीसे प्रकट होता है (सः) वह परमेश्वर (विभूःप्रजासु) उत्पन्न होनेवाली सभी सृष्टियों और प्राणियों में (ओतः, प्रोतः) ओत-प्रोत है, ताने और बाने की भाँति व्याप्त है । (वेन:) योगाभ्यासी, साधनाशील व्यक्ति (तत् सत्) उस सत्यस्वरूप नित्यब्रह्म को (गुहा निहितम्) हृदय-गुहा में स्थित हुआ (पश्यत्) देखता है ।

    भावार्थ

    १. हमारे लिए यह संसार बहुत महान है, अत्यन्त विस्तृत है । यदि मनुष्य बड़े-से-बड़े विमान में बैठकर अनेक जन्मों तक भ्रमण करता रहे तो भी इसका वार-पार नहीं पा सकता । इतना अपार संसार उस अनन्त प्रभु में एक तुच्छ घोंसले की भाँति समाया हुआ है । २. यह अखिल ब्रह्माण्ड उसीसे उत्पन्न होता है और उसीमें विलीन हो जाता है । ३. वह परमात्मा उत्पन्न होनेवाली सभी सृष्टियों में तथा सभी प्राणियों में समाया हुआ है । वह इन सभी में इस प्रकार ओत-प्रोत है जैसे ताने और बाने में ओत-प्रोत होता है । ४. ऐसे अनन्त परमात्मा को योगी, उपासकजन अपने हृदय मन्दिर में देखते हैं। ईश्वर के दर्शन यदि कहीं हो सकते हैं तो हृदय में। अतः मूर्तियों में टक्कर न मारकर उसे हृदय में ही खोजना चाहिये ।

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    विषय

    वह सर्वाश्रय सर्वव्यापक सर्वत्र ओतप्रोत है ।

    भावार्थ

    ( वेन: ) विद्वान् मेधावी, ज्ञानवान् पुरुष (तत्) उस ब्रह्म को ( गुहा निहितम् ) बुद्धि में स्थित, अथवा गूढ़ कारण रूप में विद्यमान (सत् ) सत् रूप से (पश्यत् ) देखता है, (यत्र ) जिसमें (विश्वम् ) समस्त विश्व, ( एकनीडम् ) एक ही आश्रय पर स्थित (भवति) होता है । ( तस्मिन् ) उसमें (इदम् ) यह दृश्य जगत् (सम एति च) प्रलयकाल में लीन हो जाता है और पुनः सृष्टि के अवसर में (वि एति च) विविध रूप में प्रकट हो जाता है। (सः) वह परमेश्वर (प्रजासु विभूः) समस्त सृष्टियों और प्राणियों में व्यापक ( ओतः प्रोतः च ) ओत और प्रोत है, उरोया पिरोया हुआ है ।

    टिप्पणी

    ८-० 'कनीळम्' इति काण्व० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परमात्मा । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    वेन का प्रभुदर्शन

    पदार्थ

    १. 'वेन' शब्द वेन् धातु से बना है। इसके अर्थ हैं [क] क्रियाशील- to go to move, [ख] ज्ञान प्राप्त करनेवाला - to know, [ग] प्रभु का पुजारी to worship । एवं, वेनःक्रियाशील, ज्ञानी, प्रभुभक्त व्यक्ति (तत्) = उस प्रभु को पश्यत् देखता है। प्रभु के दर्शन के लिए 'कर्म, ज्ञान व भक्ति' का समन्वय आवश्यक है । २. वेन उस प्रभु को देखता है जो (गुहा निहितम्) = हृदयरूप गुहा में निहित हैं। प्रभु तक वही पहुँचता है जो अन्नमय, प्राणमय, मनोमय व विज्ञानमयकोशों को पार करके आनन्दमयकोश में पहुँचता है। यही अन्तर्मुख यात्रा हमें प्रभु तक ले जाती है। वे प्रभु गुहा में विचरनेवाले हैं। उनको ढूँढने के लिए हमें कहीं बाहर थोड़े ही भटकना है? ३. (सत्) = वे प्रभु सत् हैं। यद्यपि प्रकृति व जीव भी सत् हैं तथापि प्रकृति सदा विकृत होती रहती है और जीव भी विविध शरीरों को धारण करता है और इस प्रकार इनमें परिवर्तन है, प्रभु एकरस, निर्विकार, सत्-ही-सत् हैं। 'सत्' शब्द की भावना यह भी है कि हम प्रभु को मिलने जाते हैं तो वे सदा सत् उपस्थित होते हैं, उनके अनुपस्थित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। वे सर्वव्यापक हैं, मेरे जाने की देर है, जाऊँगा दरवाज़ा थपथपाऊँगा तो प्रभु मिलेंगे ही, दरवाज़ा खुलेगा ही। ४. ये प्रभु वे हैं यत्र जिनमें (विश्वम्) = यह सारा संसार (एकनीडम्) = एक घोंसलेवाला भवति होता है। जैसे एक घर में परस्पर प्रेम का अनुभव होता है, इसी प्रकार प्रभु का अनुभव करने पर यह सारी वसुधा एक परिवार प्रतीत होने लगती हैं, हम सब उस प्रभु के ही तो पुत्र हैं । ५. (तस्मिन्) = उस प्रभु में (इदं सर्वम्) = यह सारा जगत् प्रलयकाल के समय (सम् एति) = समा जाता है (च) = और सृष्टिकाल में (विएति) = विविध रूपों में गति करने लगता है। प्रलय में भी कारणरूप प्रकृति का आधार प्रभु है और सृष्टि में भी सब लोक-लोकोन्तरों का आधार वे प्रभु ही हैं । ६. (सः) = वे प्रभु (ओतः च प्रोतः च) = इस संसार में ओत-प्रोत हैं। संसार - वस्त्र के वे प्रभु ही ताने-बाने के सूत्र हैं। वे प्रभु (प्रजासु) = सब प्रजाओं के अन्दर (विभूः) = व्याप्त होकर रह रहे हैं। प्रभु त्र्यम्बक है। ' त्रीणि अम्बकानि नेत्राणि यस्य' यह विग्रह की परिपाटी चली आ रही है। इसे 'त्रीणि अम्बकानि यस्मै' इस रूप में कर दें तो अर्थ का सौन्दर्य बढ़ जाता है। उस प्रभु के देखने के लिए 'कर्म, ज्ञान व भक्ति' रूप तीन आँखें हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु-दर्शन के लिए ज्ञान, क्रिया व भक्ति का समुच्चय आवश्यक है। वे प्रभु हृदय में ही निहित हैं, सर्वव्यापक हैं।

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    मन्त्रार्थ

    (वेन:) ध्यान से कान्तिमान् जन (तत् सत्-गुहा निहितंपश्यत्) उस अविनाशी नित्य ब्रह्म को हृदय गुहा में स्थित हुआ देखता है (यत्र विश्वम्-एकनीडं भवति) जिसमें संसार एक घोंसले के समान तुच्छरूप से है (तस्मिन् इदं 'येति' च) उस अनन्त ब्रह्म में यह विलीन भी हो जाता है और सर्गकाल में सम् एति च विच संसार प्रलय काल में प्रकट भी हो जाता है (सः-विभूः प्रजासु श्रोतः प्रोतः च) वह विमू:-विशेषरूप से सब में रहने वाला वस्तु में ओत प्रोत है उत्पत्ति या सर्ग की श्रोर चलते हुए भी और नाश या प्रलय की ओर आते हुए भी समस्त जगत् के अन्दर व्याप्त रहता है ॥८॥

    विशेष

    ऋषिः-स्वयम्भु ब्रह्म १-१२ । मेधाकामः १३-१५ । श्रीकामः १६ ।। देवताः-परमात्मा १-२, ६-८ १०, १२, १४। हिरण्यगर्भः परमात्मा ३ । आत्मा ४ । परमेश्वरः ५ । विद्वान् । इन्द्रः १३ । परमेश्वर विद्वांसौ १५ । विद्वद्राजानौ १६ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    विद्वान लोक ज्याला बुद्धीने जाणतात. आकाश वगैरे पदार्थांचा जो आधार आहे आणि प्रलयाच्योवळी सर्व जग ज्यात लीन होते व उत्पत्तीच्या वेळी ज्याच्यातून जग उत्पन्न होते, तसेच प्रत्येक पदार्थ त्या ईश्वराने व्यापलेला आहे. त्याला सोडून दुसऱ्या कुणालाही उपास्य देव मानू नका.

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    विषय

    पुन्हा, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (यत्र) ज्या ईश्‍वरात (विश्‍वम्) सर्व जन (एकनीडम्) एका आश्रयखाली असल्याप्रमाणे (भवति) होते (सर्वव्यापकामुळे सर्व जग त्याच्याच अस्तित्वाखाली आहे) (तत्) त्या (गुहा) बुद्धिवा कारणरूपेण (निहितठ) गुप्त असणार्‍या (सत्) नित्य चेतन ब्रह्माला (वेनः) पंडित विद्वज्जन (पश्यत्) आपल्या ज्ञानदृष्टीने पाहतात (तोच उपासनीय आहे) (तस्मिन्) त्यातच (इदम्) हे (सर्वम्) सर्वजग (सम्, एति) प्रलयकाळी विलीन वा समाविष्ट होते (च) आणि सृष्टीच्या उत्पत्तिकाळी (वि) तेच जग पृथक होऊन स्थूलरूपात (च) देखील येते (सः) तो (विभुः) विशेषत्वाने व्याप्त ईश्‍वर (प्रजास) सर्व प्राण्यांमधे अशा पद्धतीने ओतप्रोत आहे की जसे (ओतः) वस्त्रात लांबीचे सूत्र वा तागे (च) आणि त्यांत (प्रोतः) आठवे सूत्र वा तागे असतात तोच परमेश्‍वर सर्वांसाठी उपासनीय आहे. ॥8॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे मनुष्यांनो, ज्या ईश्‍वराला केवळ विद्वज्जन आपल्या ज्ञानशक्तीने जाणण्यास समर्थ आहेत, जो आकाश आदी पदार्थांचा आधार असून प्रलयकाळी सर्व जग ज्यामधे विलीन होते आणि उत्पत्तिसमयीं ज्यातून निघते, त्या ईश्‍वराची उपासना करा) तसेच सर्वव्यापी ईश्‍वर जिथे नाही, असे एकही स्थान वा पदार्थ नाही. हे मनुष्यांनो, तुम्ही त्या ईश्‍वराशिवाय अनय कोणाचीही उपासना करू नका ॥8॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The sage beholdeth the eternal conscious God hidden in the inmost recesses of the heart ; in Whom this world hath found a solitary abode. In Him is this universe dissolved and then created. He is ubiquitous, and pervades souls and matter like warp and woof.

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    Meaning

    The man of vision and wisdom sees that eternal spirit hidden in mystery where the universe lies nestled in His presence. Therein all this comes into being together, and therein it falls asunder. Infinite is He, immanent and omnipresent in the created beings.

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    Translation

    The wise beholds Him, as if placed in a secret cave, in whom all this world finds a common nest. All this unites in Him and springs forth from Him. That omnipresent Lord is woven like warp and woof in all the creatures. (1)

    Notes

    Venaḥ, वेन पंडित:, the wise person; one who knows the secrets of the universe. Paśyat, पश्यति, beholds, Sat, नित्यं, eternal. Guhä nihitam, as if placed in a cave; secret; something mysterious; difficult to know or understand. Ekanidam bhavati, finds a common nest; just as flocks of birds find shelter in their nests, even so whole of this universe finds shelter in one and the same nest; a common shelter for all. Sam ca vi ca eti, comes together and issues forth. Just as the petals of a flower close in the evening and open out in the morning, even so at the time of creation these worlds come out of Him and at the time of destruction (प्रलय) these close and vanish into Him. Vibhūḥ, one who is present everywhere.

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    बंगाली (2)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (য়ত্র) যাহাতে (বিশ্বম্) সকল জগৎ (একনীডম্) এক আশ্রয়যুক্ত (ভবতি) হয় (তৎ) সেই (গুহা) বুদ্ধি বা গুপ্ত কারণে (নিহিতম্) স্থিত (সৎ) নিত্য চেতন ব্রহ্মকে (বেনঃ) পন্ডিত বিদ্বান্ ব্যক্তি (পশ্যৎ) জ্ঞানদৃষ্টি দ্বারা দেখে, (তস্মিন্) তাহাতে (ইদম্) এই (সর্বম্) সকল জগৎ (সম্, এতি) প্রলয় সময়ে সঙ্গত হয় (চ) এবং উৎপত্তি সময়ে (বি) পৃথক স্থুলরূপ (চ) ও হয় (সঃ) তিনি (বিভুঃ) বিবিধ প্রকার ব্যাপ্ত হইয়া (প্রজাষু) প্রজাদিগের মধ্যে (ওতঃ) ঊর্ধ্বতন্তুতে যেমন বস্ত্র (চ) তথা (প্রোতঃ) তির্য্যক তন্তুতে যেমন বস্ত্র তদ্রূপ ওতপ্রোত হইয়া আছেন তিনিই সকলের উপাসনা করিবার যোগ্য ॥ ৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! বিদ্বানই যাহাকে বুদ্ধি বল দ্বারা জানে, যাহা সব আকাশাদি পদার্থের আধার, প্রলয় সময়ে সব জগৎ যাহাতে লীন হয় এবং উৎপত্তি সময়ে যাহা হইতে বাহির হয় এবং যে ব্যাপ্ত ঈশ্বর ব্যতীত কোনও বস্তু খালি নয়, তাহাকে ছাড়িয়া কোন অন্যকে উপাস্য জানিবে না ॥ ৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বে॒নস্তৎপ॑শ্য॒ন্নিহি॑তং॒ গুহা॒ সদ্যত্র॒ বিশ্বং॒ ভব॒ত্যেক॑নীডম্ ।
    তস্মি॑ন্নি॒দꣳ সং চ॒ বি চৈ॑তি॒ সর্ব॒ꣳ সऽ ওতঃ॒ প্রোত॑শ্চ বি॒ভূঃ প্র॒জাসু॑ ॥ ৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বেন ইত্যস্য স্বয়ম্ভু ব্রহ্ম ঋষিঃ । পরমাত্মা দেবতা । নিচৃৎ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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    পদার্থ

    বেনস্তৎপশ্যন্নিহিতং গুহাসদ্যত্র বিশ্বং ভবত্যেকনীড়ম্ ।

    তস্মিন্নিদং সং চ বিচৈতি সর্বং সঽ ওতঃ প্রোতশ্চ বিভূঃ প্রজাসু।।১৫।।

    (যজু ৩২।৮)

    পদার্থঃ (বেনঃ) ব্রহ্মজ্ঞানী ব্যক্তি (তৎ) সেই ব্রহ্মকে যিনি (গুহানিহিতম্) বুদ্ধিরূপী গুহাতে  স্থিত তথা (সৎ) তিন কালে বর্তমান, নিত্য, তাঁকে (পশ্যৎ) প্রত্যক্ষ অনুভব করেন। (যত্র) যেই ব্রহ্মে (বিশ্বম্ ) সারা সংসার (এক নীড়ম্ ) এক আশ্রয়কে (ভবতি) প্রাপ্ত হয়, (তস্মিন্) সেই ব্রহ্মে (ইদম্ সর্বম্) এই সমস্ত জগৎ (সম্ এতি চ) প্রলয়কালে সংগত হয় অর্থাৎ লীন হয় এবং উৎপত্তিকালে (বিএতি চ) পৃথক স্থূল রূপকেও প্রাপ্ত হয়। (সঃ) সেই জগদীশ (বিভূঃ) বিবিধ প্রকার ব্যাপ্ত হয়ে (প্রজাসু) প্রজাদের মধ্যে ( ওতঃ প্রোতঃ চ) ওতপ্রোত।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ ব্রহ্মজ্ঞানী ব্যক্তি সেই ব্রহ্মকে নিজের বুদ্ধিরূপী গুহাতে স্থিত দেখেন, যে ব্রহ্ম সত্য হওয়ার কারণে নিত্য, ত্রিকালে অবধ্য এবং সকল সংসারের আশ্রয়। এই জগৎ প্রলয়কালে যাঁর মধ্যে লীন হয় এবং উৎপত্তিকালে যাঁর থেকে প্রকট হয়ে স্থূলরূপকে প্রাপ্ত হয় এবং নির্মিত সকল জগতে যিনি ব্যাপ্ত, সেই ব্রহ্মকেই ব্রহ্মজ্ঞানী জানেন এবং অনুভব করে কৃতার্থ হন।।১৫।।

     

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