यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 4
ऋषिः - स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
688
ए॒षो ह॑ दे॒वः प्र॒दिशोऽ नु॒ सर्वाः॒ पूर्वो॑ ह जा॒तः सऽ उ॒ गर्भे॑ऽ अ॒न्तः। सऽ ए॒व जा॒तः स ज॑नि॒ष्यमा॑णः प्र॒त्यङ् जना॑स्तिष्ठति स॒र्वतो॑मुखः॥४॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः। ह॒। दे॒वः। प्र॒दिश॒ इति॑ प्र॒ऽदिशः॑। अनु॑। सर्वाः॑। पूर्वः॑। ह॒। जा॒तः। सः। उँ॒ऽइत्यूँ॑। गर्भे॑। अ॒न्तरित्य॒न्तः ॥ सः। ए॒व। जा॒तः। सः। ज॒नि॒ष्यमा॑णः। प्र॒त्यङ्। जनाः॑। ति॒ष्ठ॒ति॒। सर्वतो॑मुख इति॑ स॒र्वतः॑ऽमुखः ॥४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एषो ह देवः प्रदिशोनु सर्वाः पूर्वो ह जातः सऽउ गर्भेऽअन्तः । सऽएव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्थति सर्वतोमुखः ॥
स्वर रहित पद पाठ
एषः। ह। देवः। प्रदिश इति प्रऽदिशः। अनु। सर्वाः। पूर्वः। ह। जातः। सः। उँऽइत्यूँ। गर्भे। अन्तरित्यन्तः॥ सः। एव। जातः। सः। जनिष्यमाणः। प्रत्यङ् । जनाः। तिष्ठति। सर्वतोमुख इति सर्वतःऽमुखः॥४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे जनाः! एषो ह देवः सर्वाः प्रदिशोऽनुव्याप्य स उ गर्भेऽन्तः पूर्वो ह जातः स एव जातः स जनिष्यमाणः सर्वतोमुखः प्रत्यङ् तिष्ठति स युष्माभिरुपासनीयो वेदितव्यश्च॥४॥
पदार्थः
(एषः) परमात्मा। अत्र विभक्तेरलुक्। (ह) प्रसिद्धम् (देवः) दिव्यस्वरूपः (प्रदिशः) (अनु) आनुकूल्ये (सर्वाः) दिशश्च (पूर्वः) प्रथमः (ह) प्रसिद्धम् (जातः) प्राकट्यं प्राप्तः (सः) (उ) एव (गर्भे) अन्तःकरणे (अन्तः) मध्ये (सः) (एव) (जातः) प्रसिद्धः (सः) (जनिष्यमाणः) प्रसिद्धिंः प्राप्स्यमानः (प्रत्यङ्) प्रतिपदार्थमञ्चति प्राप्नोति (जनाः) विद्वांसः (तिष्ठति) वर्त्तते (सर्वतोमुखः) सर्वतो मुखाद्यवयवा यस्य सः॥४॥
भावार्थः
अयं पूर्वोक्त ईश्वरो जगदुत्पाद्य प्रकाशितः सन् सर्वासु दिक्षु व्याप्येन्द्रियाण्यन्तरेण सर्वेन्द्रियकर्माणि सर्वगतत्वेन कुर्वन् सर्वप्राणिनां हृदये तिष्ठति सोऽतीतानागतेषु कल्पेषु जगदुत्पादनाय पूर्वं प्रकटो भवति स ध्यानशीलेन मनुष्येण ज्ञातव्यो नान्येनेति भावः॥४॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (जनाः) विद्वानो! (एषः) यह (ह) प्रसिद्ध परमात्मा (देवः) उत्तम स्वरूप (सर्वाः) सब दिशा और (प्रदिशः) विदिशाओं को (अनु) अनुकूलता से व्याप्त होके (सः) (उ) वही (गर्भे) अन्तःकरण के (अन्तः) बीच (पूर्वः) प्रथम कल्प के आदि में (ह) प्रसिद्ध (जातः) प्रकटता को प्राप्त हुआ, (सः, एव) वही (जातः) प्रसिद्ध हुआ (सः) वह (जनिष्यमाणः) आगामी कल्पों में प्रथम प्रसिद्धि को प्राप्त होगा। (सर्वतोमुखः) सब ओर से मुखादि अवयवों वाला अर्थात् मुखादि इन्द्रियों के काम सर्वत्र करता (प्रत्यङ्) प्रत्येक पदार्थ को प्राप्त हुआ (तिष्ठति) अचल सर्वत्र स्थिर है, वही तुम लोगों को उपासना करने और जानने योग्य है॥४॥
भावार्थ
यह पूर्वोक्त ईश्वर जगत् को उत्पन्न कर प्रकाशित हुआ सब दिशाओं में व्याप्त हो के इन्द्रियों के बिना सब इन्द्रियों के काम सर्वत्र व्याप्त होने से करता हुआ, सब प्राणियों के हृदय में स्थिर है, वह भूत, भविष्यत् कल्पों में जगत् की उत्पत्ति के लिये पहिले प्रकट होता है, वह ध्यानशील मनुष्य के जानने योग्य है, अन्य के जानने योग्य नहीं है॥४॥
विषय
उसका सर्वतोमुख वर्णन उसका त्रिज्योति षोडषी स्वरूप ।
भावार्थ
( एषः देवः ) निश्चय से यह ही सब पदार्थों का द्रष्टा और प्रकाशक (सर्वाः प्रदिशः) समस्त दिशाओं को (अनु) व्यापे हुए है । (ह) वही निश्चय से (पूर्व:) सबसे पूर्व (जातः) प्रथम प्रकट होता हैं । (सः उ ) और वह ही (अन्तः गर्भे ) भीतर गर्भ में आत्मा और हिरण्यगर्भ में परमात्मा विद्यमान रहता है । (सः एव ) वह ही (जातः) समस्त लोकों में शक्ति रूप से प्रकट होता है । (सः) वह ही ( जनिष्यमाण: ) भविष्य में भी प्रकट होगा । हे ( जनाः ) पुरुषो ! वह ( प्रत्यङ ) प्रत्येक पदार्थ में व्यापक होकर ( सर्वतः मुखः ) सब ओर उसके मुखों के समान सब प्रकार के काम करने की शक्ति वाला है । सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति । गीता । १३ । १३ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आत्मा । भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
सर्वतोमुख देव
पदार्थ
१. (एषः) = ये प्रभु (ह) = निश्चय से (देवः) = देव हैं। देव के अर्थ यास्कानुसार निम्न हैं- [क] (देवो दानात्) = वे प्रभु देनेवाले हैं। प्रभु ने जीव के हित के लिए उसे क्या नहीं दिया? वे सब शक्तियों के देनेवाले हैं। [ख] (देवो दीपनात्) = वे प्रभु देदीप्यमान हैं। उस सर्वतो देदीप्यमान देव की दीप्ति की कल्पना आकाश में चमकते हुए सहस्रों सूर्यो की चमक से ही हो सकती है। [ग] (देवो द्योतनात्) = वे प्रभु सारे पिण्डों को द्योतित कर रहे हैं। प्रभु की दीप्ति से ही ये सारे सूर्य, चन्द्र व तारे दीप्त हो रहे हैं। २. ये प्रभु (सर्वाः प्रदिश:) = इन सब विस्तृत दिशाओं में (अनु) = [व्याप्य तिष्ठति] व्याप्त होकर रह रहे हैं। कौन-सा स्थल है, जहाँ प्रभु नहीं है। कण-कण में उस प्रभु की व्याप्ति है। ३. (पूर्वो ह जातः) = वे प्रभु निश्चय ही पहले से हैं। ('हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे') = हिरण्यगर्भ प्रभु इस सृष्टि से पूर्व विद्यमान हैं। उनका कोई आदि नहीं, अनादि होते हुए वे सभी के आदि हैं। वे स्वयं तो 'स्वयम्भू' = खुदा हैं। ४. (सः उ गर्भे अन्तः) = वे प्रभु ही सब पदार्थों के गर्भ में हैं। सबके अन्दर स्थित हुए हुए वे सबका नियमन कर रहे हैं। ५. (सः एव जात:) = वे प्रभु अनादिकाल से इन सृष्टियों को जन्म दे रहे हैं। माता प्रजाता' का अर्थ है 'माता ने बच्चे को जन्म दिया। इसी प्रकार यहाँ (स एव जात:) = उस प्रभु ने ही सृष्टि को जन्म दिया। 'जात:' यह भूतकाल का प्रत्यय सूचित कर रहा है कि भूत में न जाने कितने कालों से वे इन सृष्टियों का निर्माण कर रहे हैं। वस्तुतः अनादिकाल से यह चक्र चल रहा है। (सः जनिष्यमाणः) = भविष्य में भी वे इन सृष्टियों को जन्म देंगे। अनन्तकाल तक यह चक्र चलता जाएगा। यह सृष्टि-प्रलयचक्र न जाने कब से चल रहा है और न जाने कब तक चलता चलेगा। ६. इस सृष्टि में मनुष्य को जन्म देकर प्रभु ही उसको ज्ञान भी देते हैं। हे (जनाः) = मनुष्यो ! वे प्रभु (प्रत्यङ) = तुम्हारे आत्मा में ही (तिष्ठति) = स्थित हैं। वे एक साथ अग्नि को ऋग्वेद का, वायु को यजुर्वेद का, सूर्य को सामवेद का और अङ्गिरा को अथर्ववेद का उपदेश दे रहे हैं, क्योंकि वे (सर्वतोमुखः)=- सब ओर मुखवाले है । ७. उस प्रभु को ढूँढने के लिए तीर्थों में भटकने की आवश्यकता नहीं वे तो अन्दर ही हैं। सब विद्याएँ पढ़कर भी [ब्रह्मचारी]. यज्ञादि करके भी [गृहस्थ] स्तुति व कीर्तन में लगकर भी [ वानप्रस्थ] मनुष्य प्रभु को तभी देखेगा जब वह अपने अन्दर ध्यान करेगा। यह अन्तर्मुख यात्रा करनेवाला संन्यासी ही 'ब्रह्माश्रमी' बनता है, ब्रह्म को देखता है। ऋग्वेद से सब विज्ञानों का अध्ययन करके, यजुर्वेद के अनुसार सब यज्ञों का अनुष्ठान करके, सामवेद से उपासना करके जब मनुष्य [अथ] अपने अन्दर [अर्वाङ] देखता है तभी ब्रह्म का दर्शन करता है। अथर्ववेद इसीलिए ब्रह्मवेद कहलाता है [अथ+अर्वाङ] ।
भावार्थ
भावार्थ- हम देव, सब दिशाओं में व्याप्त, अनादि, अनन्त, सृष्टि-प्रलय-चक्र को चलानेवाले, हृदय में विद्यमान, सर्वतोमुख प्रभु का ध्यान करें।
मन्त्रार्थ
(जना:-एषः-ह-देवः सर्वाः प्रदिश:-अनु) हे मनुष्यो ! हो यह परमात्मदेव विश्वगोल की सारी सीमाओं को पहुंचा हुआ है (पूर्व ह जातः) वह परमात्मा सीमाओं से पूर्व प्रसिद्ध है (सः-उ गर्भे अन्तः) वह सीमाओं के गर्भ-मध्य में भी वर्तमान है (सः-एव जातः सः-जनिष्यमाणः) वह सब जगत् को उत्पन्न कर सका वह आगे उत्पन्न करेगा (सर्वतोमुखः प्रत्यङ् तिष्ठति) सब ओर मुखवाला- सर्वसाक्षी हुआ वस्तुमात्र को प्राप्त है ॥४॥
विशेष
ऋषिः-स्वयम्भु ब्रह्म १-१२ । मेधाकामः १३-१५ । श्रीकामः १६ ।। देवताः-परमात्मा १-२, ६-८ १०, १२, १४। हिरण्यगर्भः परमात्मा ३ । आत्मा ४ । परमेश्वरः ५ । विद्वान् । इन्द्रः १३ । परमेश्वर विद्वांसौ १५ । विद्वद्राजानौ १६ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
वरीलप्रमाणे ईश्वर जगाला उत्पन्न करून प्रकट झालेला आहे. ईश्वर सर्व दिशामध्ये व्याप्त असून, इंद्रियांशिवाय सर्व इंद्रियांची कामे करतो. तो प्राण्यांच्या हृदयामध्ये स्थित असतो. तो भूत, भविष्य कल्पामध्ये जगाच्या उत्पत्तीसाठी प्रथम प्रकट होतो. ध्यान करणाऱ्या माणसांना तो जाणता येतो. इतर लोक त्याला जाणू शकत नाहीत.
विषय
पुन्हा, तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (जनाः) विद्वज्जन हो, (एषाः) हा (ह) प्रसिद्ध परमात्मा (देवः) उत्तम स्वरूप असून (सर्वाः) सर्व दिशा आणि (प्रदिशः) प्रदिशांमधे (अवु) व्याप्त आहे (सः) (उ) तोच (गर्भे) अंतः) मधे (पूर्वः) प्रथम कल्पाच्या आधी (प्रलयानंतर सृष्टि निर्मितीच्या आधी) (ह) प्रसिद्ध वा विद्यमान होता. तो त्यावेळी (जातः) सृष्टीरूपाने व्यक्त होत होता, (सःएव) तोच (जातः) प्रसिद्ध होता. (जनिष्यमाणः) अगामी कल्पांमधे तोच प्रकट वा व्यक्त होईल (कृष्ट्युत्पत्ती मुळे त्याचे अस्तित्व जाणवेल) (सर्वतोमुखः) सर्व दिशांकडे मुख आदी अवयव असलेला (लाक्षणिक अर्थ-निराकार असूनही, मुख आदी इद्रियांची कार्ये, (पाहणे, ऐकणे आदी) करीत (प्रत्यङ्) प्रत्येक पदार्थापर्यंत जाणारा वा तिथे असणारा अशा रूपात तो परमेश्वर (तिष्ठति) अचल सर्वत्र स्थिर विद्यमान आहे. हे मनुष्यांनो, तुम्ही तोच परमेश्वर तुमच्याकरिता उपासनीय आणि ज्ञातव्य आहे. ॥4॥
भावार्थ
भावार्थ - पूर्वीच्या मंत्रात वर्णिलेला ईश्वर जगदुत्पत्ती करून त्या रूपात व्यक्त झालेला, सर्व दिशांत व्यापक इंद्रियांविना इंद्रियांची सर्व कार्यें करणारा, सर्वत्र व्याप्त असल्यामुळे सर्व प्राण्यांच्या हृदयात स्थिर आहे. तो भूतकाळातील कल्प म्हणजे सृष्टिनिर्मितीच्या वेळी जगदुत्पत्तीसाठी क्रियाशील होतो, तोच ध्यानशील मनुष्यांसाठी ज्ञातव्य आहे. ध्यानाद्वारेच त्याला जाणून घेता येते, अन्य अध्यानशील मनुष्य त्याला जाणू शकत नाही. ॥4॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned persons, this very God pervadeth all regions. He was present in the minds of all in the last cycle of creation; He is present now, and will be present in future cycles. He exists, controlling everything, with His power of facing all directions.
Meaning
Children of divinity, verily this glorious lord of the universe pervades all regions and quarters of space. First born, i. e. , manifested, of existence, in truth, He is at the very centre of the universe and in the depths of the soul. Existent and manifest, He continues to manifest every moment and abides everywhere in everything facing forward in all directions.
Translation
Surely this very Lord pervades all the regions. He was born before all, yet He is in the womb still. He is what has been born; also He is what shall be born hereafter. Having faces all around, He stands facing each and every person. (1)
Notes
Devaḥ, this divinity; the Lord. Pradiso' nu sarvāh, सर्वाः प्रदिशः अनुव्याप्य तिष्ठति, occu pies all the regions and the mid-regions; there is no region or direction, where He is not there. Jātaḥ garbhe antaḥ u, He is born, yet unborn; contradic tion to emphasize His extraordinary capability. Jātaḥ janiṣyamāṇaḥ, He has been born, still He is being born and is still to be born. Pratyan janāstişthati, stands facing each and every man. अचिन्त्यशक्तिरित्यर्थ:, the idea to be conveyed is that His power and capability is beyond comprehension.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (জনাঃ) বিদ্বান্গণ! (এষঃ) এই (হ) প্রসিদ্ধ পরমাত্মা (দেবঃ) উত্তম স্বরূপ (সর্বাঃ) সকল দিশা এবং (প্রদিশঃ) বিদিশাকে (অনু) আনুকূল্য পূর্বক ব্যাপ্ত হইয়া (সঃ) (উ) তিনিই (গর্ভে) অন্তঃকরণের (অন্তঃ) মধ্যে (পূর্বঃ) প্রথম কল্পের আদিতে (হ) প্রসিদ্ধ (জাতঃ) প্রকাশ্যে আসিলেন (সঃ, এষ) তিনিই (জাতঃ) প্রসিদ্ধ হইলেন (সঃ) তিনি (জনিষ্যমাণঃ) আগামী কল্পে প্রথম প্রসিদ্ধিকে প্রাপ্ত হইবেন (সর্বতোমুখঃ) সব দিক দিয়া মুখাদি অবয়বযুক্ত অর্থাৎ মুখাদি ইন্দ্রিয়দিগের কর্ম্ম সর্বত্র করিয়া (প্রত্যঙ্) প্রত্যেক পদার্থকে প্রাপ্ত হইয়া (তিষ্ঠতি) অচল সর্বত্র স্থির, তিনিই তোমাদিগের উপাসনা করিবার এবং জানিবার যোগ্য ॥ ৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই পূর্বোক্ত ঈশ্বর জগৎকে উৎপন্ন করিয়া প্রকাশিত হইয়াছেন, সর্ব দিকে ব্যাপ্ত হইয়া ইন্দ্রিয় ব্যতীত সকল ইন্দ্রিয়ের কর্ম সর্বত্র ব্যাপ্ত হওয়ায় সকল প্রাণিদিগের হৃদয়ে স্থির, তিনি ভূত, ভবিষ্যৎ কল্পে জগতের উৎপত্তির জন্য প্রথমে প্রকট হন্, তিনি ধ্যানশীল মনুষ্যের জানিবার যোগ্য, অন্যের জানিবার যোগ্য নহে ॥ ৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
এ॒ষো হ॑ দে॒বঃ প্র॒দিশোऽনু॒ সর্বাঃ॒ পূর্বো॑ হ জা॒তঃ সऽ উ॒ গর্ভে॑ऽ অ॒ন্তঃ ।
সऽ এ॒ব জা॒তঃ স জ॑নি॒ষ্যমা॑ণঃ প্র॒ত্যঙ্ জনা॑স্তিষ্ঠতি স॒র্বতো॑মুখঃ ॥ ৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
এষ ইত্যস্য স্বয়ম্ভু ব্রহ্ম ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । ভুরিক্ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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