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  • यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 22
    ऋषिः - आदित्या देवा वा ऋषयः देवता - सविता देवता छन्दः - स्वराड् गायत्री स्वरः - षड्जः
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    अ॒स्मात्त्वमधि॑ जा॒तोऽसि॒ त्वद॒यं जा॑यतां॒ पुनः॑।अ॒सौ स्व॒र्गाय॑ लो॒काय॒ स्वाहा॑॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मात्। त्वम्। अधि॑। जा॒तः। अ॒सि॒। त्वत्। अ॒यम्। जा॒य॒ता॒म्। पुन॒रिति॒ पुनः॑ ॥ अ॒सौ। स्वर्गायेति॑ स्वः॒ऽगाय॑। लो॒काय॑। स्वाहा॑ ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मात्त्वमधिजातोसि त्वदयञ्जायताम्पुनः । असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मात्। त्वम्। अधि। जातः। असि। त्वत्। अयम्। जायताम्। पुनरिति पुनः॥ असौ। स्वर्गायेति स्वःऽगाय। लोकाय। स्वाहा॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 35; मन्त्र » 22
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    पदार्थ -
    इस अध्याय की समाप्ति पर कहते हैं कि (त्वम्) = तू (अस्मात्) = इस प्रभु से (अधिजातः) = प्रादुर्भूत (असि) = हुआ है। प्रभु ने तुझे यह शरीर दिया है। उसमें उन्नति के लिए विविध इन्द्रियाँ प्रभु ने तुझे प्राप्त कराई हैं। (पुनः) = अब फिर (अयम्) = यह प्रभु (तत्) = तुझसे (जायताम्) = प्रादुर्भूत किया जाए। प्रभु से तेरा प्रादुर्भाव हुआ है, तुझसे प्रभु का प्रादुर्भाव हो । जो व्यक्ति प्रभु का अपने हृदय में प्रादुर्भाव करने का प्रयत्न करता है उसकी वृत्ति सुन्दर बनती है इसमें कोई शक नहीं है। प्रभु की अनुभूति हुई और मानव-जीवन की सब मलिनता समाप्त हुई। (असौ) = यह प्रभु - अनुभव लेनेवाला व्यक्ति (स्वर्गाय लोकाय) = स्वर्गलोक के लिए समर्थ होता है। यह अपने ऐहिक निवास को सुखमय बना पाता है। इसी उद्देश्य से यह ('स्वाहा') = [स्व+हा] स्वार्थ का त्याग करता है। जितना-जितना स्वार्थ का त्याग करता जाता है उतना उतना यह स्वर्गमय जीवनवाला होता जाता है। जो पुरुष परमात्मा के प्रादुर्भाव का प्रयत्न करते हैं और स्वार्थ त्यागवाले होते हैं उनका जीवन सुखमय हो जाता है। ये स्वर्ग में निवास करनेवाले 'आदित्यदेव' कहलाते हैं, ये उत्तमता व दिव्यता का आदान करते हुए सचमुच स्वर्ग- -सुख के अधिकारी होते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- हम अपने जीवन में प्रभु की भावना को जागरित करें, स्वार्थ त्यागवाले हों, जिससे स्वर्ग का निर्माण कर सकें।

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