यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 15
यो वः॑ शि॒वत॑मो॒ रस॒स्तस्य॑ भाजयते॒ह नः॑।उ॒श॒तीरि॑व मा॒तरः॑॥१५॥
स्वर सहित पद पाठयः। वः॒। शि॒वत॑म॒ इति॑ शि॒वऽत॑मः। रसः॑। तस्य॑। भा॒ज॒य॒त॒। इ॒ह। नः॒। उ॒श॒तीरिवेत्यु॑श॒तीःऽइ॑व। मा॒तरः॑ ॥१५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः । उशतीरिव मातरः ॥
स्वर रहित पद पाठ
यः। वः। शिवतम इति शिवऽतमः। रसः। तस्य। भाजयत। इह। नः। उशतीरिवेत्युशतीःऽइव। मातरः॥१५॥
विषय - जल - रस सेवन-पीने का प्रकार
पदार्थ -
१. इन मन्त्रों के ऋषि 'सिन्धुद्वीप' हैं। 'स्यन्दन्ते इति सिन्धवः '- बहने से जल 'सिन्धु' हैं। ये जल जिसके अन्दर व बाहर उपयुक्त हुए हैं, वह 'द्विर्गता आपो यस्मिन्' इस व्युत्पत्ति से 'द्वीप' है। यह सिन्धुद्वीप कहता है कि हे जलो! (यः) = जो (वः) = आपका (शिवतमः रसः) = अत्यन्त कल्याणकर रस है (तस्य) = उसका (नः) = हमें (इह) = इस मानव शरीर में (भाजयत) = सेवन कराइए। उसी प्रकार (इव) = जैसे (उशती) = हित चाहती हुई (मातर:) = माताएँ बच्चे को दूध का सेवन कराती हैं। २. जल हमारे लिए उसी प्रकार हितकर हैं जैसे बच्चे के लिए माता । बच्चा जिस प्रकार मातृस्तन से दुग्ध का धीमे-धीमे पान करता है, इसी प्रकार हमें धीमे-धीमे जल का रस लेना है। ३. जैसे हाथी तो गन्ना खा जाता है, परन्तु मनुष्य गन्ने का रस लेता है इसी प्रकार हमें जल नहीं पी जाना अपितु जल का रस लेना है। 'कुल्ला करते जाएँ', थोड़ा-थोड़ा पानी अपने आप अन्दर जाएगा। यह जल के रस को लेना है। एकदम गिलास - का- गिलास पेट में नहीं उलट देना। बाहर भी वस्तुतः स्पजिंग के ढंग से पानी का रस लेना है, बालटियाँ नहीं उलटाते चलना। हम सन्तरा नहीं खा जाते, उसका रस ही लेते हैं। इसी प्रकार प्रस्तुत मन्त्र में जल के रस के सेवन का विधान है। जल को सदा धीमे-धीमे पीना ही हितकर है, इसी को आचमन करना कहते हैं, sipping न कि Drinking | आचमन के रूप में पिया हुआ जल रोगों का आचमन ( चमु भक्षणे) कर जाता है। यह रस हमें नीरोगता व दीर्घायु प्राप्त कराता है।
भावार्थ - भावार्थ- हम सदा जलों का सेवन आचमनरूप से करते हुए उनके रस का ग्रहण करें।
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