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  • यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 3
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - दैवी बृहती, निचृद्गायत्री स्वरः - मध्यमः,षड्जः
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    भूर्भुवः॒ स्वः। तत्स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भूः। भुवः॑। स्वः᳖। तत्। स॒वि॒तुः। वरे॑ण्यम्। भर्गः॑। दे॒वस्य॑। धी॒म॒हि॒ ॥ धियः॑। यः। नः॒। प्र॒चो॒दया॒दिति॑ प्रऽचो॒दया॑त् ॥३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यम्भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    भूः। भुवः। स्वः। तत्। सवितुः। वरेण्यम्। भर्गः। देवस्य। धीमहि॥ धियः। यः। नः। प्रचोदयादिति प्रऽचोदयात्॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 36; मन्त्र » 3
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    पदार्थ -
    १. 'मानव जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए' इसका निर्देश प्रभु ने इन तीन महाव्याहृतियों द्वारा किया है [क] (भूः) = [भू सत्तायाम् to be ] = स्वास्थ्य होना अर्थात् 'स्वस्थ' होना। 'अपने में स्थित न होना', यह बात न हो, अर्थात् 'अस्वस्थ' न हों। [ख] (भुवः) = ज्ञान [भुवो अवकल्कने, (अवकल्कनम्) = चिन्तनम् ] ज्ञानी बनें। [ग] (स्वः) = स्वयं राजमानता, अपरतन्त्रता, अर्थात् जितेन्द्रियता एवं इन तीन शब्दों में मनुष्य जीवन का ध्येय इस प्रकार प्रतिपादित हुआ है कि 'शरीर के दृष्टिकोण से स्वस्थ बनो, मन व बुद्धि के दृष्टिकोण से ज्ञानी बनो तथा आत्मिक दृष्टिकोण से जितेन्द्रिय बनो । इन्द्र वही है जो इन्द्रियों का अधिष्ठाता हो। २. उल्लिखित ध्येय को प्राप्त करने के लिए हम सदा इस बात का ध्यान करें कि 'प्रभु के तेज को प्राप्त करना' ही हमारी रट हो, यही हमारा जप हो। इस तेज को प्राप्त करने के लिए मुझे अपना जीवन अधिकाधिक सुन्दर बनाना होगा, अतः मन्त्र में कहते हैं कि (तत् सवितुः) - [तनु विस्तारे - तत्] उस विस्तृत, अनन्त विस्तारवाले सर्वव्यापक प्रभु के (देवस्य) = दिव्य गुणों के पुञ्ज परमात्मा के (वरेण्यम्) = वरने के योग्य श्रेष्ठ (भर्ग:) = तेज का (धीमहि) = हम ध्यान करें, उसे ही अपनी आँखों के सामने रक्खें और धारण करने का प्रयत्न करें। किस प्रभु को? उस प्रभु को (यः) = जो (नः) = हमारी (धियः) = बुद्धियों को (प्रचोदयात्) = उत्कृष्ट प्रेरणा देता है। जिस व्यक्ति ने प्रभु के तेज को धरण करने का ही जप किया वह व्यक्ति सदा हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनता है । ३. यह प्रभु-प्रेरणा को सुननेवाला व्यक्ति सभी का मित्र होता है, यह 'विश्वामित्र' होता है। जिसका ध्यान प्रभु की ओर जाता है, वह सब में प्रभु को देखता है। ४. यह मन्त्र वेदों का सारभूत मन्त्र समझा जाता है। प्रसिद्धि तो यह है कि ब्रह्मा ने वेदों का दोहन किया। ऋचाओं के दोहन से 'तत्सवितुर्वरेण्यम्' इस चरण का दोहन हुआ, यजुः मन्त्रों के दोहन का परिणाम भर्गो देवस्य धीमहि' है तथा साम- मन्त्रों का सार 'धियो यो नः प्रचोदयात्' निकाला।

    भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु के तेज को अपने जीवन में धारण करें, जिससे प्रभु हमारी बुद्धियों को प्रेरित करते रहें।

    - नोट्- गायत्री मन्त्र वस्तुतः तीन प्रश्नों का उत्तर है- ' क्या, क्यों, कैसे'? (प्रश्न: क्या करें? उत्तर:) प्रभु के तेज का ही नित्य ध्यान करें। (प्रश्न: क्यों करें? उत्तर:) देवस्य देव और सवितु सविता-ऐश्वर्यशाली बनने के लिए, वास्तविक ऐश्वर्य को पाने के लिए। (प्रश्न: कैसे करें? उत्तर:) उस प्रभु से दी जा रही प्रेरणा को सुनें।

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