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  • यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 8
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - द्विपादद्विराड् गायत्री स्वरः - षड्जः
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    इन्द्रो॒ विश्व॑स्य राजति।शन्नो॑ऽअस्तु द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑। विश्व॑स्य। रा॒ज॒ति॒ ॥ शम्। नः॒। अ॒स्तु॒। द्वि॒पद॒ इति॑ द्वि॒ऽपदे॑। शम्। चतु॑ष्पदे। चतुः॑पद॒ इति॑ चतुः॑ऽपदे ॥८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो विश्वस्य राजति । शन्नो अस्तु द्विपदे शञ्चतुष्पदे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। विश्वस्य। राजति॥ शम्। नः। अस्तु। द्विपद इति द्विऽपदे। शम्। चतुष्पदे। चतुःपद इति चतुःऽपदे॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 36; मन्त्र » 8
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    पदार्थ -
    १. (इन्द्रः) = वह सर्वशक्तिमान्, सब असुरों को दूर भगानेवाला प्रभु (विश्वस्य) = सारे ब्रह्माण्ड का तथा इस संसार में प्रविष्ट [विश्] सब प्राणियों का राजति शासन व व्यवस्था करता है। जिस दिन हम प्रभु के अध्यात्मशासन का अनुभव करेंगे, उस दिन (नः) = हम (द्विपदे) = दो पाँवों से गति करनेवाले मनुष्यों के लिए (शम्) = शान्ति होगी तथा (चतुष्पदे शम्) = चौपयों, अर्थात् पशुओं के लिए भी शान्ति होगी। वस्तुतः इस अध्यात्मशासन में मनुष्यों के परस्पर संघर्ष का तो प्रश्न ही नहीं, पशुओं से उनका किसी प्रकार का द्वेष न होगा, अर्थात् सिंहादि पशु भी मनुष्य के साथ शान्ति से चलेंगे। वन्य न रहकर वे भी पालतू हो जाएँगे, चिड़िया घर की वस्तु हो जाएँगे। योगदर्शन का ('अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्यागः') = यह सूत्र स्थूलरूप धारण करता हुआ दृष्टिगोचर होगा, २. परन्तु इस अध्यात्मराज्य को ला वही व्यक्ति सकता है जो 'दध्यङ्'- प्रभु का ध्यान करनेवाला है, जो 'आथर्वण' स्थिरवृत्ति का होने से सभी को समान राज्य में रहनेवाला अपना साथी समझता है। सर्वत्र अनुभव करें और सब प्राणियों के साथ

    भावार्थ - भावार्थ- हम उस ईश के साम्राज्य का शान्ति से चलने की मनोवृत्तिवाले बनें।

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