यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 15
ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृद् ब्राह्म्यनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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सम॒ग्निर॒ग्निना॑ गत॒ सं दैवे॑न सवि॒त्रा सꣳ सूर्य्ये॑णारोचिष्ट।स्वाहा॒ सम॒ग्निस्तप॑सा गत॒ सं दैव्ये॑न सवि॒त्रा सꣳसूर्य्ये॑णारूरुचत॥१५॥
स्वर सहित पद पाठसम्। अ॒ग्निः। अ॒ग्निना॑। ग॒त॒। सम्। दैवे॑न। स॒वि॒त्रा। सम्। सूर्य्ये॑ण। अ॒रो॒चि॒ष्ट॒ ॥ स्वाहा॑। सम्। अ॒ग्निः। तप॑सा। ग॒त॒। सम्। दैव्ये॑न। स॒वि॒त्रा। सम्। सूर्य्ये॑ण। अ॒रू॒रु॒च॒त॒ ॥१५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समग्निरग्निना गत सन्दैवेन सवित्रा सँ सूर्येणारोचिष्ट । स्वाहा समग्निस्तपसा गत सन्दैव्येन सवित्रा सँ सूर्येणारूरुचत ॥
स्वर रहित पद पाठ
सम्। अग्निः। अग्निना। गत। सम्। दैवेन। सवित्रा। सम्। सूर्य्येण। अरोचिष्ट॥ स्वाहा। सम्। अग्निः। तपसा। गत। सम्। दैव्येन। सवित्रा। सम्। सूर्य्येण। अरूरुचत॥१५॥
विषय - पति-पत्नी के कर्त्तव्य
पदार्थ -
मन्त्र संख्या १२ में पति को 'अग्नि' तथा १३ में पत्नी को 'स्वाहा' शब्द से स्मरण किया गया है। मूल अग्नि तो प्रभु ही हैं जो संसार में सभी उन्नतियों के साधक हैं [अग्निः=अग्रेणी:]। घर में पति भी अग्नि है, उसने घर को आगे ले चलना है। १. [क] यह (अग्निः) = घर का मुखिया (अग्निना) = उस ब्रह्माण्ड के सञ्चालक प्रभु से संगत-मेलवाला हो। खाते-पीते, सोते-जागते, उठते-बैठते प्रभु को भूले नहीं। [ख] पृथिवीस्थ देवों का मुखिया भौतिक 'अग्नि' है- अन्य सब देवों का यह मुखस्थानीय है। सब देवता इसी के द्वारा हवि खाते हैं। गृहपति को चाहिए कि वह इस अग्नि से संगत हो। इसमें प्रातः - सायं हव्य पदार्थ डालने का अवश्य ध्यान करे। इस देवयज्ञ को कभी भूले नहीं। जिस घर में यह देवयज्ञ नियम से चलता है, वहाँ रोग तो आते ही नहीं, अकेले खा लेने की वृत्ति भी नहीं बनती। मनुष्य यज्ञशेष को खाने के स्वभाव का विकास कर पाता है। [२] इस गृहपति को चाहिए कि वह (दैवेन सवित्रा) = देवों के प्रकाशक उस सवितादेव से (संगत) = संगत हो। प्रभु के चरणों में बैठकर हम उत्तम प्रेरणा प्राप्त करते हैं और अपने में देवत्व को विकसित करते हैं। [३] यह गृहपति (सूर्येण) = ब्रह्मज्ञान के सूर्य से (सम् अरोचिष्ट) = दीप्त हो, अर्थात् गृहपति ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयत्न करे। संक्षेप में, उसके हाथ यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगे हों, उसका हृदय प्रभु के स्मरण से दूर न हो और उसका मस्तिष्करूप द्युलोक ज्ञान के सूर्य से दीप्त हो। इसी भावना को दुहराते हुए कहते हैं कि - [१] (स्वाहा अग्निः) = त्याग की भावना से ओत-प्रोत पत्नीवाला, घर की उन्नति की भावना से भरा हुआ यह गृहपति तपसा संगत- तप से युक्त हो । तप का सामान्य भाव आलस्य में न फँसकर सदा क्रिया में लगे रहने से है। गृहपति व गृहपत्नी की क्रियाशीलता पर ही सम्पूर्ण उन्नति निर्भर है। वे तपस्वी न होकर आरामपसन्द जीवनवाले हो गये तो घर का ह्रास अवश्यंभावी है। [२] यह पत्नीसहित पति (दैव्येन सवित्रा) = दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए हितकर उस प्ररेक प्रभु से (संगत) = युक्त हो । पति-पत्नी दोनों ही प्रभु के उपासक हों- प्रभु से अपना सम्बन्ध टूटने न दें। इसी से उनमें सम्पूर्ण दिव्यता का विकास होना है। सन्तानों को उत्तम बनाना भी इस प्रभु के सम्पर्क में बैठने पर निर्भर है। [३] यह प्रभु के उपासक पति-पत्नी ही (सूर्येण) = ज्ञान के प्रकाश से (सम् अरूरुचत) = सम्यक् देदीप्यमान होते हैं।
भावार्थ - भावार्थ-गृहपति व गृहपत्नी का यह कर्तव्य है कि [१] वे आलस्य को छोड़कर तपस्वी जीवन बनाएँ और यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगे रहें [२] प्रभु के साथ अपना सम्पर्क अवश्य बनाएँ। [३] ज्ञान के सूर्य से दीप्त होने का प्रयत्न करें।
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