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  • यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 14
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    गर्भो॑ दे॒वानां॑ पि॒ता म॑ती॒नां पतिः॑ प्र॒जाना॑म्।सं दे॒वो दे॒वेन॑ सवि॒त्रा ग॑त॒ सꣳसूर्य्येण रोचते॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गर्भः॑। दे॒वाना॑म्। पि॒ता। म॒ती॒नाम्। पतिः॑। प्र॒जाना॒मिति॑ प्र॒ऽजाना॑म् ॥ सम्। दे॒वः। दे॒वेन॑। स॒वि॒त्रा। ग॒त॒। सम्। सूर्य्ये॑ण। रो॒च॒ते॒ ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गर्भो देवानाम्पिता मतीनाम्पतिः प्रजानाम् । सन्देवो देवेन सवित्रा गत सँ सूर्येण रोचते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    गर्भः। देवानाम्। पिता। मतीनाम्। पतिः। प्रजानामिति प्रऽजानाम्॥ सम्। देवः। देवेन। सवित्रा। गत। सम्। सूर्य्येण। रोचते॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 37; मन्त्र » 14
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    पदार्थ -
    पिता के जीवन पर ही बहुत कुछ बच्चों का जीवन निर्भर करता है, अतः आदर्श पिता के जीवन का चित्रण करते हैं १. (गर्भो देवानाम्) = बच्चों के पिता को 'देवों का गर्भ' होना चाहिए, अर्थात् दिव्य गुणों को अपने में धारण करनेवाला बनना चाहिए। पिता की ये सब अच्छाइयाँ ही पुत्र में अवतीर्ण होंगी। जैसा पिता होगा, वैसा ही पुत्र बनेगा। कहा तो यह जाता है कि जाया [पत्नी] को 'जाया' इसलिए कहते हैं कि 'यदस्यां जायते पुनः 'इसमें पति फिर जन्म लेता हैं, एवं पिता ही पुत्ररूप में उत्पन्न होता है, अतः दिव्य गुणोंवाले पिता का पुत्र भी दिव्य गुणोंवाला होगा। २. (पिता मतीनाम्) = यह सब मतियों, ज्ञानों का रक्षक [पा रक्षणे] बनता है। ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। यह ऊँचा ज्ञान उसे अभिमान की भावना से बचानेवाला होगा, क्योंकि ज्ञान की कमी सदा हमारे अभिमान का कारण बनती है। ३. (प्रजानाम् पतिः) = यह अपने सन्ताओं का रक्षक होता है, उनका अति सुन्दरता से पालन व निर्माण करता है। सन्तान का पालन ही वस्तुतः पिता का मौलिक कर्त्तव्य है। इसी में सफलता से उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है । ४. इसी प्रकार देव:-बड़े उत्तम व्यवहारवाला यह [दिव् व्यवहार] पिता (सवित्रा) = जन्मदाता [ षू- प्रसव= जन्म देना] (देवेन) = उस दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभु से सङ्गत, प्रातः - सायं मेल करनेवाला (सूर्येण) = ब्रह्मज्ञान के प्रकाश से (सम् गत) = सङ्गत होता है और (सम् रोचते) = सम्यक्तया रोचमान होता है। वस्तुतः अपनी दिव्यता को स्थिर रखने के लिए प्रातः - सायं उस प्रभु के चरणों में स्थित होना आवश्यक है। उससे दूर हुए, और हमने अपनी दिव्यता खोई। प्रभु के सामीप्य में हमारी ज्ञानदीप्ति सूर्य के समान चमकती है।

    भावार्थ - भावार्थ- आदर्श पिता वह है जो १. दिव्य गुणों को धारण करता है २. ज्ञान को महत्त्व देता है ३. सन्तान - निर्माण को अपना प्रारम्भिक कर्त्तव्य समझता है ४. प्रभु से मेल को टूटने नहीं देता और ५. इसी कारण सूर्य के समान चमकता है।

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