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  • यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 16
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः
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    ध॒र्त्ता दि॒वो वि भा॑ति॒ तप॑सस्पृथि॒व्यां ध॒र्त्ता दे॒वो दे॒वाना॒मम॑र्त्यस्तपो॒जाः।वाच॑म॒स्मे नि य॑च्छ देवा॒युव॑म्॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ध॒र्त्ता। दि॒वः। वि। भा॒ति॒। तप॑सः। पृ॒थि॒व्याम्। ध॒र्त्ता। दे॒वः। दे॒वाना॑म्। अम॑र्त्यः। त॒पो॒जा इति॑ तपः॒ऽजाः ॥ वाच॑म्। अ॒स्मे इत्य॒स्मे। नि। य॒च्छ॒। दे॒वा॒युव॑म्। दे॒व॒युव॒मिति॑ देव॒ऽयुव॑म् ॥१६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धर्ता दिवो विभाति तपसस्पृथिव्यान्धर्ता देवो देवानाममर्त्यस्तपोजाः । वाचमस्मे नि यच्छ देवायुवम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    धर्त्ता। दिवः। वि। भाति। तपसः। पृथिव्याम्। धर्त्ता। देवः। देवानाम्। अमर्त्यः। तपोजा इति तपःऽजाः॥ वाचम्। अस्मे इत्यस्मे। नि। यच्छ। देवायुवम्। देवयुवमिति देवऽयुवम्॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 37; मन्त्र » 16
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    पदार्थ -
    १४ तथा १५ मन्त्र में ('अग्नि व स्वाहा') = पति पत्नी का प्रभु के सम्पर्क में आने के प्रयत्न का वर्णन है। वे प्रभु का स्मरण निम्न रूप में करते हैं - [१] (दिवः धर्त्ता) = वे प्रभु प्रकाशक का धारण करनेवाले हैं- सारा प्रकाश उन्हीं से प्राप्त होता है। प्रकाश के स्त्रोत वे प्रभु हैं। पवित्र हृदयों में उस प्रकाश का दर्शन होता है। [२] (विभाति तपसः) = वे प्रभु तप के कारण विशेषरूप से दीप्त हो रहे हैं। प्रभु के इस तीव्र तप से ही सृष्टि के प्रारम्भ में'ऋत व सत्य' की उत्पत्ति होती है। अपने तप के कारण ही प्रभु अपने परम स्थान से पतित नहीं होते। [३] (पृथिव्यां धर्त्ता) = हे प्रभो! आप ही इस पृथिवी पर सबके धारण करनेवाले हो । वस्तुतः प्रभु जिसका धारण करना ठीक समझते हैं उसे कोई मार नहीं सकता और जिसे प्रभु समाप्त करना चाहें उसे कोई बचा नहीं सकता। सबके धारण के लिए प्रभु की शतशः, सहस्रशः क्रियाएँ चल रही हैं। [४] (देवानां देवः) सूर्यादि प्रकाशकों के प्रकाशक आप ही हैं [देवो द्योतनात्] ('तस्य भासा सर्वमिदं विभाति') = प्रभु की दीप्ति से ही सब ज्योतिर्मय पिण्ड दीप्त हो रहे हैं। [५] (अमर्त्यः) = वे प्रभु अमर हैं। वैसे तो आत्मतत्त्व भी अमर है, परन्तु जीव कर्मनुसार विविध योनियों में जन्म लेता है और शरीरों के छोड़ने से मर्त्य कहलाता है। प्रभु का शरीरधारण व शरीरत्याग से कोई सम्बनध नहीं है। [६] (तपोजाः) = वे प्रभु तप से प्रादुर्भूत होते हैं, अर्थात् कोई भी उपासक तप से अपने हृदय को पवित्र करता है तो वहाँ हृदयस्थ प्रभु के दर्शन कर पाता है। [७] प्रभु - दर्शन करनेवाला तपस्वी प्रभु से प्रार्थना करता है कि (अस्मे) = हमारे लिए (देवायुवम्) = [यु - मिश्रण] सब दिव्य गुणों का सम्पर्क करानेवाली (वाचम्) = वाणी को (नियच्छ) = निश्चितरूप से हमें दीजिए। यह वेदवाणी पढ़ी व समझी जाकर तथा अनुष्ठित होकर सचमुच हमारे जीवनों को दिव्य बनाती है।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु प्रकाश के पुञ्ज हैं। उनके सम्पर्क में हम उस प्रकाश को पानेवाले हों।

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