यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 16
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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अग्ने॒ नय॑ सु॒पथा॑ रा॒येऽअ॒स्मान् विश्वा॑नि देव व॒युना॑नि वि॒द्वान्।यु॒यो॒ध्यस्मज्जु॑हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्ठां ते॒ नम॑ऽउक्तिं विधेम॥१६॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑। नय॑। सु॒पथेति॑ सु॒ऽपथा॑। रा॒ये। अ॒स्मान्। विश्वा॑नि। दे॒व॒। व॒युना॑नि। वि॒द्वान् ॥ यु॒यो॒धि। अ॒स्मत्। जु॒हु॒रा॒णम्। एनः॑। भूयि॑ष्ठाम्। ते॒। नम॑ऽउक्ति॒मिति॒ नमः॑ऽउक्तिम्। वि॒धे॒म॒ ॥१६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने नय सुपथा रायेऽअस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् । युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भुयिष्ठान्ते नमउक्तिँविधेम ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने। नय। सुपथेति सुऽपथा। राये। अस्मान्। विश्वानि। देव। वयुनानि। विद्वान्॥ युयोधि। अस्मत्। जुहुराणम्। एनः। भूयिष्ठाम्। ते। नमऽउक्तिमिति नमःऽउक्तिम्। विधेम॥१६॥
विषय - बिना किसी अपराध के Without Crime, Without sin
पदार्थ -
१. धन 'संसार' का पर्यायवाची शब्द-सा हो गया है। कोई भी कार्य धन के बिना नहीं हो पाता। यजुर्वेद में प्रतिपादित सब यज्ञ भी धन से ही होने हैं, अतः धन आवश्यक है, परन्तु यही धन हमें अशुचि बनाकर निधन की ओर ले जाता है। साधनभूत धन प्रायः साध्य का स्थान ले लेता है। यह हमारे प्रयोजन का साधक व सेवक नहीं रहता, हमीं इसके सेवक हो जाते हैं। हम इसके पति नहीं, यह हमारा पति हो जाता है और हमें पीस डालता है। उस समय हम टेढ़े-मेढ़े सभी साधनों से इसे कमाने लगते हैं। सब कर्त्तव्य कर्मों को भूल से जाते हैं, सच तो यह कि कुछ अन्धे से हो जाते हैं, अतः मन्त्र में प्रार्थना करते हैं कि- २. हे (अग्ने) = आगे ले चलनेवाले प्रभो! कभी भी न भटकने देनेवाले प्रभो ! (अस्मान्) = हम सबको (राये) = धन के लिए, उस धन के लिए [ रा दाने] जो वस्तुत: दान देने के लिए है, यज्ञों में विनियोग के लिए है, (सुपथा नय) = उत्तम मार्ग से ले चलिए। हम कभी भी धन की चमक के वशीभूत होकर अन्याय मार्ग से इसके कमाने का विचार न करें। हे (देव) = दिव्य मार्गों को दिखानेवाले प्रभो ! (विश्वानि वयुनानि) = आप तो हमारे सब कर्मों व प्रज्ञानों को (विद्वान्) = जान रहे हैं, अतः ज्योंही हमारे मस्तिष्क में गलत रास्ते से धन कमाने का विचार उठे, आप उसे वहीं समाप्त कर दें। न विचार - बीज रहेगा और न रद्दी कर्मरूप अंकुर उत्पन्न होगा [Nip the evil in the bud] अज्ञान- पुष्प ही न रहेगा तो कर्मफल होगा ही कैसे ? ३. (अस्मत्) = हमसे (जुहुराणम्) = कुटिलता [ crime ] को तथा (एन:) = पाप [sin ] को (युयोधि) = पृथक् कीजिए। हम न तो कुटिलमार्ग से धन कमाएँ और न ही पाप की कमाई जुटाएँ । राष्ट्रीय नियमों को तोड़ना ही कुटिलता है। आयकर ठीक न देने के लिए हिसाब को ठीक न दिखाना आदि सब बातें 'जुहुराणम्' हैं। प्रभु के प्रति पाप 'एन' है। प्रभु ने नियम बनाया कि (स्वेदस्य) = पसीने की कमाई ही तुम्हारी कमाई हो। मैं बिना श्रम के सट्टे के द्वारा, लॉटरी टिकिट्स के द्वारा रुपया कमाना चाहता हूँ, यह एनस्' [Sin] है। प्रभु मुझे इन दोनों से दूर करें। ४. इस कार्य के लिए हे प्रभो! हम (ते) = आपकी (भूयिष्ठाम्) = बहुत अधिक (नमः उक्तिम्) = नमन की उक्ति को (विधेम) = करते हैं। हम सदा आपके प्रति नतमस्तक होते हैं। आपकी उपासना ही हमें 'कुटिलता व पाप' से बचाएगी, अन्यथा इस धन की गुलामी से हम कहाँ बच पाएँगे?
भावार्थ - भावार्थ- हे प्रभो! ऐसी कृपा करो कि हम सदा सन्मार्ग से ही धन कमाएँ। आपकी कृपा से कुटिलता व पाप हमसे दूर रहें।
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