यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 4
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - ब्रह्म देवता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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अने॑ज॒देकं॒ मन॑सो॒ जवी॑यो॒ नैन॑द्दे॒वाऽआ॑प्नुव॒न् पूर्व॒मर्ष॑त्।तद्धाव॑तो॒ऽन्यानत्ये॑ति॒ तिष्ठ॒त्तस्मि॑न्न॒पो मा॑त॒रिश्वा॑ दधाति॥४॥
स्वर सहित पद पाठअने॑जत्। एक॑म्। मन॑सः। जवी॑यः। न। ए॒न॒त्। दे॒वाः। आ॒प्नु॒व॒न्। पूर्व॑म्। अर्ष॑त् ॥ तत्। धाव॑तः। अ॒न्यान्। अति॑। ए॒ति॒। तिष्ठ॑त्। तस्मि॑न्। अ॒पः। मा॒त॒रिश्वा॑। द॒धा॒ति॒ ॥४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनेजदेकम्मनसो जवीयो नैनद्देवाऽआप्नुवन्पूर्वमर्शत् । तद्धावतोन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥
स्वर रहित पद पाठ
अनेजत्। एकम्। मनसः। जवीयः। न। एनत्। देवाः। आप्नुवन्। पूर्वम्। अर्षत्॥ तत्। धावतः। अन्यान्। अति। एति। तिष्ठत्। तस्मिन्। अपः। मातरिश्वा। दधाति॥४॥
विषय - निरभिमानता
पदार्थ -
१. पिछले मन्त्र की फलश्रुति के बाद प्रस्तुत मन्त्र में 'सर्वव्यापकता' की भावना का ही प्रकारान्तरेण वर्णन प्रारम्भ होता है - [क] वे प्रभु (अनेजत्) = [न एजत्] बिलकुल हिल परन्तु नहीं रहे। खाली स्थान हो तो हिला जाए! जब वे सर्वव्यापक हैं, हिलें ही कैसे, सर्वव्यापक न होते हुए भी तो किसी और से स्थान भरा होने के कारण 'न हिलना' हो सकता है, अतः कहते हैं कि ('एकम्') = वे हैं तो एक। 'एक होते हुए न हिलना' तभी होता है जब वह सर्वव्यापक हो। [ख] (मनसो जवीय:) = वे प्रभु मन से भी अधिक वेगवान् हैं। मन सर्वाधिक वेगवाला है। प्रभु मनसे भी अधिक वेगवान् हैं। वास्तविकता तो यह है कि (एनत्) = इस प्रभु को (देवाः) = देव (न आप्नुवन्) = नहीं पकड़ पाते। देवों की दौड़ के साम्मुख्य में सब देव इससे पीछे रह जाते हैं। प्रभु जीत जाते हैं। जीत का अभिप्राय यही है कि 'विजयस्तम्भ' पर पहले पहुँच जाना। प्रभु तो (पूर्वम्) = पहले ही (अर्शत्) = वहाँ पहुँचे हुए हैं। सर्वव्यापक होने के कारण वे कहाँ नहीं हैं। [ग] (तत्) = वे प्रभु (धावतः अन्यान्) = दौड़ते हुए दूसरों को अत्येति लाँघ जाते हैं, उनसे आगे निकल जाते हैं और खूबी यह कि तिष्ठत्-ठहरे-ठहरे ही। बिना गति किये लाँघ जाना इसीलिए तो है कि जहाँ भी पहुँचना प्रभु वहाँ पहले से ही हैं। २. एवं, वे प्रभु सर्वव्यापक तो हैं ही, परन्तु साथ ही सौन्दर्य की बात यह है कि गतिशून्य होते हुए भी सर्वाधिक गतिमान् हैं। ठहरे भी दौड़ते हुओं से आगे निकल जानेवाले हैं। ठीक-ठीक बात यह है कि गतिशून्य होते हुए सबको गति दे रहे हैं। वे गति के स्रोत हैं। ३. (मातरिश्वा) = मातृगर्भ में बढ़नेवाला यह जीव भी (तस्मिन्) = उस प्रभु में ही (अपः) = कर्मों को (दधाति) = धारण करता है। इसकी भी सारी गति उस प्रभु की शक्ति से ही हो रही है। जीव को यह भ्रम हो जाता है कि उसकी अपनी शक्ति है।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु की सर्वव्यापकता को अनुभव करें। कण-कण में उसकी शक्ति को काम करता हुआ देखें और अपनी सफलताओं को प्रभुशक्ति से होता हुआ समझें तथा सदा प्रभु का स्मरण करें।
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