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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 14
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - स्वराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    वि॒द्यां चावि॑द्यां च॒ यस्तद्वेदो॒भय॑ꣳ स॒ह।अवि॑द्यया मृ॒त्युं ती॒र्त्वा वि॒द्यया॒मृत॑मश्नुते॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒द्याम्। च॒। अवि॑द्याम्। च॒। यः। तत्। वेद॑। उ॒भय॑म्। स॒ह ॥ अवि॑द्यया। मृ॒त्युम्। ती॒र्त्वा। वि॒द्यया॑। अ॒मृत॑म्। अ॒श्नु॒ते॒ ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विद्याञ्चाविद्याञ्च यस्तद्वेदोभयँ सह । अविद्यया मृत्युन्तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विद्याम्। च। अविद्याम्। च। यः। तत्। वेद। उभयम्। सह॥ अविद्यया। मृत्युम्। तीर्त्वा। विद्यया। अमृतम्। अश्नुते॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 14
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    पदार्थ -
    उल्लिखित विलक्षण फलोंवाली (विद्यां च) = आत्मविद्या को और (अविद्यां च) = प्रकृतिविद्या को (यः) = जो (तत् उभयम्) = उन दोनों को सह वेद-साथ- साथ जानता है वह (अविद्यया) = सृष्टिविद्या से (मृत्युम् तीर्त्वा) = मृत्यु को तैरकर (विद्यया) = आत्मज्ञान से (अमृतम्) = अमरता को (अश्नुते) = प्राप्त करता है। मनुष्य दो कारणों से मुख्यतया असमय में ही मृत्यु का ग्रास हो जाता था। एक तो अकाल पड़ जाने से भूखे मरकर और दूसरे बीमारियों का शिकार होकर। प्रकृतिविद्या व विज्ञान ने थोड़ी भूमि पर अधिक अन्न उपजाकर भूखे मरने के प्रश्न को समाप्त कर अतः दिया, साथ ही मक्खी-मच्छरों को समाप्त कर मलेरिया आदि बीमारियों को भी समाप्त कर दिया। साथ ही औषघ विज्ञान ने टी.बी. आदि बीमारियों का भी प्रतीकार कर दिया है, इनकी भयंकरता समाप्त हो गई है। एवं मनुष्य प्रकृतिविद्या से मृत्यु को तैर गया है। शल्य-चिकित्सा के चमत्कारों ने मानवजीवन को दीर्घ कर दिया है। संक्षेप में विज्ञान ने मनुष्य के लिए प्रकृति को बड़ा सुखद व सुन्दर बना दिया है। मनुष्य को प्रकृति निरन्तर अपनी ओर आकृष्ट कर रही है। कई बार तो मनुष्य किसी वस्तु के लिए इतना लालायित हो उठता है कि 'वह उसके बिना मर ही जाएगा' ऐसा प्रतीत होने लगता है। 'आत्मस्वरूप का चिन्तन ही उसे इस मरने से बचाएगा', अतः मन्त्र में कहते हैं कि (विद्यया) = आत्मज्ञान से (अमृतम्) = अमरता को (अश्नुते) = पाता है। [क] प्रकृतिविद्या भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वस्तुओं की न्यूनता नहीं होने देती और आत्मविद्या उसे उन वस्तुओं के मात्रातीत प्रयोग से बचाती है। [ख] प्रकृतिविद्या जीवन की मोटर में एञ्जिन है तो आत्मविद्या ब्रेक का काम देती है। प्रकृतिविद्या के बिना तो जीवन की गाड़ी चलती ही नहीं पर आत्मविद्या न हो तब भी यह कहीं-न-कहीं टकराकर टूट ही जाएगी। एवं, हमें अपने जीवनों में दोनों का ही समन्वय करके चलना है। प्रत्येक गृहस्थ अपने सन्तानों को विज्ञान की शिक्षा अवश्य दिलवाए और अपने साथ धार्मिक सत्सङ्गों में भी उन्हें अवश्य ले जाए। वैज्ञानिक युवक भूखा न मरेगा और अध्यात्मिक वृत्तिवाला होने से विषयासक्त न होगा । विज्ञान विषयों को उपस्थित करता है, आत्मविद्या उन विषयों का प्रयोग करते हुए भी उनके बन्धन से बचाती है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम अविद्या से मृत्यु को तरें और विद्या से अमरता का लाभ करें। विद्या से हम विषयों की अपातरमणीयता को जानेंगे और उन विषयों के पीछे मरेंगे नहीं।

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