यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 3
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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अ॒सु॒र्य्याः᳕ नाम॒ ते लो॒काऽअ॒न्धेन॒ तम॒सावृ॑ताः। ताँस्ते प्रेत्यापि॑ गच्छन्ति॒ ये के चा॑त्म॒हनो॒ जनाः॑॥३॥
स्वर सहित पद पाठअ॒सु॒र्य्याः᳕। नाम॑। ते। लो॒काः। अ॒न्धेन॑। तम॑सा। आवृ॑ता॒ इत्याऽवृ॑ताः ॥ तान्। ते। प्रेत्येति॒ प्रऽइ॑त्य। अपि॑। ग॒च्छ॒न्ति॒। ये। के। च॒। आ॒त्म॒हन॒ इत्या॑त्म॒ऽहनः॑। जनाः॑ ॥३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
असुर्या नाम ते लोकाऽअन्धेन तमसावृताः। ताँस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥३॥
स्वर रहित पद पाठ
असुर्य्याः। नाम। ते। लोकाः। अन्धेन। तमसा। आवृता इत्याऽवृताः॥ तान्। ते। प्रेत्येति प्रऽइत्य। अपि। गच्छन्ति। ये। के। च। आत्महन इत्यात्मऽहनः। जनाः॥३॥
विषय - आत्मघात
पदार्थ -
[क] प्रथम व द्वितीय मन्त्र में निम्न बाते कहीं गई हैं - १. प्रभु की सर्वव्यापकता को अनुभव करना २. त्यागपूर्वक उपभोग करना ३. लालच नहीं करना ४. प्रतिदिन इस प्रश्न का विचार करना कि 'भला, धन किसका है?' ५. जीवन को सदा क्रियामय रखना और आसक्ति से ऊपर उठकर नर बनकर काम करना तथा ६. सौ वर्ष जीने की प्रबल भावना रखना, तदनुसार ही जीवन को ढालना । [ख] ये छह बातें ही आत्मोन्नति का मार्ग हैं। इसी पर मनुष्य को चलने का प्रयत्न करना है । जो व्यक्ति इन बातों का ध्यान न करके १. प्रभुको स्मरण नहीं करता। अपने को अकेला समझ व्यसनों के प्रलोभन से नहीं बच पाता ३. भोग ही जिसके जीवन का लक्ष्य हो जाता है, अपने ही प्राणों व जीवन में रमा रहता है, 'असुषु रमन्ते' असुर बनकर अपने ही मुख में आहुति देता है '(स्वेषु आस्येषु जुह्वतश्चेरुः')। इसके जीवन में त्याग का कोई स्थान नहीं होता। ३. इसकी लोलुपता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है ४. यह समझता है कि धन का वही स्वामी है, धन को उससे कौन छीन सकता है ? ५. धन की वृद्धि करके यह अपने जीवन को आरामपसन्द बना लेता है, इसका जीवन क्रियाशील नहीं रहता और इस प्रकार अनजाने में क्षीणशक्ति होता जाता है । ५. सौ वर्ष जीने की तो कल्पना करके भी यह कई बार व्याकुल हो जाता है, वृद्धावस्था के कष्टों की कल्पना करके ही घबरा उठता है। इसके जीवन का संक्षिप्त ध्येय 'Eat, Drink and be Merry' हो जाता है। यही व्यक्ति आत्महन्' है, यह आत्मा का घात कर रहा है। प्रभु की ओर न जाकर अन्ततः प्रकृति के पाँओं तले रौंदा जाता है। [ग] (ये के च आत्महनो जनाः) = जो कोई भी आत्महन् लोग होते हैं (ते) = वे (प्रेत्य) = इस शरीर से प्रयाण करने के अनन्तर तान्-उन लोकों की अपि गच्छन्ति ओर जाते हैं जो लोक कि इस प्रकार की आसुरवृत्तिवाले लोगों के लिए हितकर हैं [असुर + य] ते (लोकाः) = वे लोक (असुर्या नाम) = 'असुर्य' [असुरों के लिए हितकर] इस नामवाले हैं। ये लोक (अन्धेन तमसा) = घने अँधेरे से (आवृताः) = आच्छादित हैं। इन लोकों में प्रकाश नहीं। पशु देखते हैं [पश्यन्ति], समझते नहीं । वृक्ष इत्यादि तो एकदम अन्त: संज्ञी ही हैं- उनकी चेतना पूर्णतया लुप्त सी है। ये ही योनियाँ असुर्य हैं। केवल अपने प्राण-पोषण में रत लोगों के लिए ये भोगयोनियाँ ही उपयुक्त हैं। एवं प्रभु इन आत्महन् असुरों को इन्हीं योनियों में जन्म देते हैं। इनमें रहते हुए वे भोग भोगने में रत रहते हैं। उनका कोई कर्त्तव्य नहीं होता- उन्हें भोग ही भोगने होते हैं। ये लोक अन्धतमस् व अज्ञान से आवृत हैं। इनमें ज्ञान का नितान्त अभाव है। यहाँ कर्त्तव्य ही नहीं है, अतः कर्त्तव्यार्त्तव्य के विवेक का प्रश्न ही नहीं उठता। के भोग से रजकर, या इस प्रसुप्त-सी अवस्था में पिछले संस्कारों सम्भवतः इन भोगों को भूलकर ये चिरकाल पश्चात् फिर मानव-जीवन को प्राप्त करेंगे और एक बार फिर इन्हें आत्मोन्नति के मार्ग पर चलने का अवसर प्राप्त होगा ।
भावार्थ - भावार्थ- हम आत्मोन्नति के मार्ग पर चलें। आत्महन् बनकर असुर्य लोकों में जन्म के भागी न बनें।
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