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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 12/ मन्त्र 10
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आसुरी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    आ दे॒वेषु॑वृश्चते अहु॒तम॑स्य भवति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । दे॒वेषु॑ । वृ॒श्च॒ते॒ । अ॒हु॒तम् । अ॒स्य॒ । भ॒व॒ति॒ ॥१२.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ देवेषुवृश्चते अहुतमस्य भवति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । देवेषु । वृश्चते । अहुतम् । अस्य । भवति ॥१२.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 12; मन्त्र » 10

    पदार्थ -

    १. (अथ) = अब (यः) = जो (एवं विदुषा) = इसप्रकार ज्ञानी (व्रात्येन) = व्रती से (अनतिसृष्टः) = बिना अनुज्ञा पाये ही, उसके आतिथ्य को उपेक्षित करके (जुहोति) = यज्ञ में प्रवृत्त होता है, वह पितृयाणं पन्यां न प्रजानाति-पितृयाणमार्ग के तत्व को नहीं जानता न देवयानं प्र [जानाति]-न ही देवयानमार्ग के रहस्य को जानता है। २. (य:) = जो एवं विदुषा (व्रात्येन) = इसप्रकार ज्ञानीव्रती से (अनतिसष्ट:) = बिना अनुज्ञा प्राप्त किये हुए ही (जुहोति) = अग्निहोत्र में प्रवृत्त हो जाता है, वह (देवेषु) = देवों के विषय में (आवृश्चते) = अपने कर्त्तव्य को छिन्न करता है। (आहुतम् अस्य भवति) = इसका अग्निहोत्र किया न किया बराबर हो जाता है और (अस्मिन् लोके) = इस संसार में (अस्य आयतनम्) = इसका घर उत्तम परिपाटियों के न रहने से (नशिष्यते) = विनष्ट हो जाता है।

    भावार्थ -

    अतिथि की उपेक्षा करके यज्ञ में लगे रहना भी उचित नहीं, इससे घर में बड़ों के आदर की भावना का विलोप होकर घर विनाश की ओर चला जाता है।

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