अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 12/ मन्त्र 9
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आसुरी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
न पि॑तृ॒याणं॒पन्थां॑ जानाति॒ न दे॑व॒यान॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठन । पि॒तृ॒ऽयान॑म् । पन्था॑म् । जा॒ना॒ति॒ । न । दे॒व॒ऽयान॑म् ॥१२.९॥
स्वर रहित मन्त्र
न पितृयाणंपन्थां जानाति न देवयानम् ॥
स्वर रहित पद पाठन । पितृऽयानम् । पन्थाम् । जानाति । न । देवऽयानम् ॥१२.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 12; मन्त्र » 9
विषय - बड़ों का निरादर व गृहविनाश
पदार्थ -
१. (अथ) = अब (यः) = जो (एवं विदुषा) = इसप्रकार ज्ञानी (व्रात्येन) = व्रती से (अनतिसृष्टः) = बिना अनुज्ञा पाये ही, उसके आतिथ्य को उपेक्षित करके (जुहोति) = यज्ञ में प्रवृत्त होता है, वह पितृयाणं पन्यां न प्रजानाति-पितृयाणमार्ग के तत्व को नहीं जानता न देवयानं प्र [जानाति]-न ही देवयानमार्ग के रहस्य को जानता है। २. (य:) = जो एवं विदुषा (व्रात्येन) = इसप्रकार ज्ञानीव्रती से (अनतिसष्ट:) = बिना अनुज्ञा प्राप्त किये हुए ही (जुहोति) = अग्निहोत्र में प्रवृत्त हो जाता है, वह (देवेषु) = देवों के विषय में (आवृश्चते) = अपने कर्त्तव्य को छिन्न करता है। (आहुतम् अस्य भवति) = इसका अग्निहोत्र किया न किया बराबर हो जाता है और (अस्मिन् लोके) = इस संसार में (अस्य आयतनम्) = इसका घर उत्तम परिपाटियों के न रहने से (नशिष्यते) = विनष्ट हो जाता है।
भावार्थ -
अतिथि की उपेक्षा करके यज्ञ में लगे रहना भी उचित नहीं, इससे घर में बड़ों के आदर की भावना का विलोप होकर घर विनाश की ओर चला जाता है।
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