अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - भुरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
सचा॑तिसृ॒जेज्जु॑हु॒यान्न चा॑तिसृ॒जेन्न जु॑हुयात् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । च॒ । अ॒ति॒ऽसृ॒जेत् । जु॒हु॒यात् । न । च॒ । अ॒ति॒ऽसृ॒जेत् । न । जु॒हु॒या॒त् ॥१२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सचातिसृजेज्जुहुयान्न चातिसृजेन्न जुहुयात् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । च । अतिऽसृजेत् । जुहुयात् । न । च । अतिऽसृजेत् । न । जुहुयात् ॥१२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
विषय - देवयज्ञ, अतिथियज्ञ
पदार्थ -
१. (तत्) = इसलिए (यस्य गृहान्) = जिसके घर पर (एवं विद्वान् वात्यः) = [इण् गतौ] सर्वत्र गतिवाले प्रभु को जाननेवाला व्रती (उद्धृतेषु अग्निषु) = अग्नियों के गाई पत्य से उठाकर आहवनी में आधान किये जाने पर (अग्निहोत्रे अधिश्रिते) = अग्निहोत्र के प्रारम्भ होने की तैयारी हो जाने पर (अतिथिः आगच्छेत्) = अतिथि के रूप में प्राप्त हो तो (स्वयम्) = अपने-आप (एनं अभि उदेत्य) = इसके प्रति प्राप्त होकर कहे कि हे (व्रात्य) = वतिन्। (अतिसृज) = आप मुझे अनुज्ञा दीजिए जिससे (होष्यामि इति) = मैं यज्ञ करूँ। २. इसप्रकार अनुज्ञा मांगने पर (सः च अतिसृजेत्) = यदि वह अनुज्ञया दे दे तो (जुहुयात्) = अग्निहोत्र करे, परन्तु यदि न (च अतिसृजेत) = यदि वह अनुज्ञा न दे तो न (जुहुयात्) = अग्निहोत्र न करे।
भावार्थ -
अग्निहोत्र प्रारम्भ होने के अवसर पर अकस्मात् अतिथि आ जाए तो गृहस्थ वात्य का आदरपूर्वक स्वागत करे। उससे अनुज्ञया लेकर ही अग्निहोत्र करे। जबतक अतिथि अनुजया न दे तब अग्निहोत्र स्थगित रक्खे।
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