अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आसुरी पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स ध्रु॒वांदिश॒मनु॒ व्यचलत् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । ध्रु॒वाम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि । अ॒च॒ल॒त् ॥६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
स ध्रुवांदिशमनु व्यचलत् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । ध्रुवाम् । दिशम् । अनु । वि । अचलत् ॥६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
विषय - ध्रुवा दिशा से 'भूमि, अग्नि, ओषधी, वनस्पति, वानस्पत्य व वीरुध'
पदार्थ -
१. (स:) = वह व्रात्य (ध्रुवां दिशं अनुव्यचलत्) = ध्रुवादिक् को लक्ष्य करके गतिवाला हुआ। उसने ध्रुवादिक्के अनुकूल गति की और परिणामतः (तम्) = उस व्रात्य को (भूमिः च अग्निः च) = पृथिवी का मुख्य देव अग्नि, (ओषधयः च वनस्पतयः च) = पृथिवी पर उत्पन्न होनेवाली ओषधी-वनस्पतियों तथा (वानस्पत्या: च वीरुधः च) = विविध प्रकार के फल, अन्न व लताएँ (अनुव्यचलन्) = अनुकूल गतिवाली हुई। २. (यः) = जो (एवं वेद) = इसप्रकार इस ध्रुवादिशा को समझने का प्रयत्न करता है, (स:) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से (भूमेः च अग्नेः च) = भूमि और अग्नि का (ओषधीनां च वनस्पतिनां च) = औषधियों व वनस्पतियों का (वानस्पत्यनां च वीरुधां च) = फलों, अन्नों व बेलों का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय अवस्थान बनता है।
भावार्थ -
व्रात्य विद्वान् ध्रुवादिशा के अनुकूल गतिवाला होकर 'भूमि, अग्नि, ओषधी, वनस्पति तथा वानस्पत्य व वीरुधों' का प्रिय पात्र बनता है।
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