Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 6/ मन्त्र 14
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    तमा॑हव॒नीय॑श्च॒गार्ह॑पत्यश्च दक्षिणा॒ग्निश्च॑ य॒ज्ञश्च॒ यज॑मानश्च प॒शव॑श्चानु॒व्यचलन्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । आ॒ऽह॒व॒नीय॑: । च॒ । गार्ह॑ऽपत्य: । च॒ । द॒क्षि॒ण॒ऽअ॒ग्नि: । च॒ । य॒ज्ञ: । च॒ । यज॑मान: । च॒ । प॒शव॑: । च॒ । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलन् ॥६.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमाहवनीयश्चगार्हपत्यश्च दक्षिणाग्निश्च यज्ञश्च यजमानश्च पशवश्चानुव्यचलन्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । आऽहवनीय: । च । गार्हऽपत्य: । च । दक्षिणऽअग्नि: । च । यज्ञ: । च । यजमान: । च । पशव: । च । अनुऽव्यचलन् ॥६.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 14

    पदार्थ -

    १. (सः) = वह व्रात्य (परमां दिशं अनुव्यचलत्) = परमा दिशा की ओर गतिवाला हुआ सर्वोत्कृष्ट यज्ञीय मार्ग की और गतिवाला हुआ। (तम्) = उस व्रात्य को (आहवनीय: च गाईपत्यः च) = दक्षिणा (अग्रि: च) = आहवनीय, गार्हपत्य व दक्षिणा अग्नि नामक तीनों अग्नियों (च) = और (यज्ञः यजमान: च पशव: च) = यज्ञ, यजमान और यज्ञसाधक गवादि पशु (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त हुए। २. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार इस यज्ञिय परमा दिशा को समझ लेता है, (स:) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से आहवनीयस्य (च गार्हपत्यस्य च दक्षिणाग्रे: च) = आहवनीय, गाहपत्य तथा दक्षिणाग्नि नामक तीनों अग्नियों का (च) = और (यज्ञस्य यज्ञमानस्य च पशनां च) = यज्ञ, यजमान व यज्ञ के लिए घृतादि पदार्थों को प्राप्त करानेवाले गवादि पशुओं का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय आश्रय-स्थान बनता है।

    भावार्थ -

    एक व्रात्य विद्वान् यज्ञों द्वारा परमा दिशा में आगे बढ़ने का संकल्प करता है। इसे 'यज्ञासियां व यज्ञ, यजमान व यज्ञसाधक पशु' सब अनुकूलता से प्राप्त होते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top