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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 6/ मन्त्र 13
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आसुरी बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    स प॑र॒मांदिश॒मनु॒ व्यचलत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । प॒र॒माम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि । अ॒च॒ल॒त् ॥६.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स परमांदिशमनु व्यचलत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । परमाम् । दिशम् । अनु । वि । अचलत् ॥६.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 13

    पदार्थ -

    १. (सः) = वह व्रात्य (परमां दिशं अनुव्यचलत्) = परमा दिशा की ओर गतिवाला हुआ सर्वोत्कृष्ट यज्ञीय मार्ग की और गतिवाला हुआ। (तम्) = उस व्रात्य को (आहवनीय: च गाईपत्यः च) = दक्षिणा (अग्रि: च) = आहवनीय, गार्हपत्य व दक्षिणा अग्नि नामक तीनों अग्नियों (च) = और (यज्ञः यजमान: च पशव: च) = यज्ञ, यजमान और यज्ञसाधक गवादि पशु (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त हुए। २. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार इस यज्ञिय परमा दिशा को समझ लेता है, (स:) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से आहवनीयस्य (च गार्हपत्यस्य च दक्षिणाग्रे: च) = आहवनीय, गाहपत्य तथा दक्षिणाग्नि नामक तीनों अग्नियों का (च) = और (यज्ञस्य यज्ञमानस्य च पशनां च) = यज्ञ, यजमान व यज्ञ के लिए घृतादि पदार्थों को प्राप्त करानेवाले गवादि पशुओं का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय आश्रय-स्थान बनता है।

    भावार्थ -

    एक व्रात्य विद्वान् यज्ञों द्वारा परमा दिशा में आगे बढ़ने का संकल्प करता है। इसे 'यज्ञासियां व यज्ञ, यजमान व यज्ञसाधक पशु' सब अनुकूलता से प्राप्त होते हैं।

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