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अथर्ववेद > काण्ड 16 > सूक्त 9

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  • अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
    सूक्त - प्रजापति देवता - आर्ची अनुष्टुप् छन्दः - यम सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त

    जि॒तम॒स्माक॒मुद्भि॑न्नम॒स्माक॑म॒भ्यष्ठां॒ विश्वाः॒ पृत॑ना॒ अरा॑तीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जि॒तम् । अ॒स्माक॑म् । उत्ऽभि॑न्नम् । अ॒स्माक॑म् । अ॒भि । अ॒स्था॒म् । विश्वा॑: । पृत॑ना: । अरा॑ती: ॥९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जितमस्माकमुद्भिन्नमस्माकमभ्यष्ठां विश्वाः पृतना अरातीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जितम् । अस्माकम् । उत्ऽभिन्नम् । अस्माकम् । अभि । अस्थाम् । विश्वा: । पृतना: । अराती: ॥९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 9; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. गतसूक्त के अनुसार बाह्य शत्रुओं को, काम, क्रोध आदि मानस शत्रुओं को तथा शारीर रोगों को दूर करके (अस्माकं जितम्) = हमारा विजय हो। (अस्माकम् उद्भिन्नम्) = हमारा उदय-ही उदय होता चले। (विश्वा:) = सब (अराती: पृतना:) = शत्रु-सेनाओं को (अभ्यष्ठाम्) = मैंने पादाक्रान्त किया है-उनपर अधिष्ठित हुआ है। इनको पराजित करके ही तो विजय व उन्नति सम्भव होता है।

    भावार्थ - शत्रु-सैन्यो का पराभव करके हम संसार में विजयी व उन्नत बनें।

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