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अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
सूक्त - सोम, पूषा
देवता - आर्ची उष्णिक्
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
तद॒ग्निरा॑ह॒तदु॒ सोम॑ आह पू॒षा मा॑ धात्सुकृ॒तस्य॑ लो॒के ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । अ॒ग्नि: । आ॒ह॒ । तत् । ऊं॒ इति॑ । सोम॑: । आ॒ह॒ । पू॒षा । मा॒ । धा॒त् । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒के ॥९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तदग्निराहतदु सोम आह पूषा मा धात्सुकृतस्य लोके ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । अग्नि: । आह । तत् । ऊं इति । सोम: । आह । पूषा । मा । धात् । सुऽकृतस्य । लोके ॥९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
विषय - अग्नि+सोम
पदार्थ -
१. (तत्) = गतमन्त्र में कही गई उस बात को कि 'हमारा विजय हो, हमारा उदय हो, मैं सब शत्रुसैन्यों को पादाक्रान्त करता हूँ' (अग्निः आह) = अग्नि कहता है। आगे बढ़ने की वृत्तिवाला पुरुष ही विजय व उदय की बात को कह सकता है। (उ) = और (तत्) = उस बात को (सोम) = सौम्य स्वभाव का, निरभिमान पुरुष (आह) = कहता है। अग्नि की तेजस्वितावाला, परन्तु शान्त व्यक्ति ही विजय व उदय को सिद्ध कर पाता है। २. यह प्रार्थना करता है कि (पूषा) = वह सबका पोषक प्रभु (मा) = मझे (सुकृतस्य लोके धात्) = पुण्य के प्रकाश में धारण करे। प्रभु के अनुग्रह व प्रेरणा से मैं कभी भी पुण्य के मार्ग से विचलित न होऊँ।
भावार्थ - अग्नि व सोम का अपने में समन्वय करता हुआ मैं निरन्तर विजयी व उन्नत बनूं। प्रभु मुझे सन्मार्ग में स्थापित करें।
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