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अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 9/ मन्त्र 4
व॑स्यो॒भूया॑य॒वसु॑मान्य॒ज्ञो वसु॑ वंसिषीय॒ वसु॑मान्भूयासं॒ वसु॒ मयि॑ धेहि ॥
स्वर सहित पद पाठव॒स्य॒:ऽभूया॑य । वसु॑ऽमान । य॒ज्ञ: । वसु॑ । वं॒शि॒षी॒य॒ । वसु॑ऽमान् । भू॒या॒स॒म् । वसु॑ । मयि॑ । धे॒हि॒ ॥९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
वस्योभूयायवसुमान्यज्ञो वसु वंसिषीय वसुमान्भूयासं वसु मयि धेहि ॥
स्वर रहित पद पाठवस्य:ऽभूयाय । वसुऽमान । यज्ञ: । वसु । वंशिषीय । वसुऽमान् । भूयासम् । वसु । मयि । धेहि ॥९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 9; मन्त्र » 4
विषय - वस-प्राप्ति
पदार्थ -
१. (वस्यः भूयाय) = ऐश्वर्य की वृद्धि के लिए (वसुमान् भूयासम्) = मैं प्रशस्त वसुवाला बनूँ। मेरा धन प्रशस्त हो, अर्थात् धन का विनियोग प्रशंसनीय रूप में ही करे। वह भोगविलास में व्ययित न होकर लोकहित के कार्यों में-यज्ञों में व्ययित हो। मैं इस बात को न भूल जाऊँ कि (वसुमान् यज्ञः) = यज्ञ प्रशस्त धनवाला है, अर्थात् यज्ञों में धन का विनियोग धन को बढ़ानेवाला ही है। (वसु वंशिषीय) = मैं वसु का संभजन [वन् संभक्ती] करनेवाला बनूं। धन को प्रशस्तरूप में बढ़ानेवाली दो ही बातें हैं कि वह यज्ञों में विनियुक्त हो तथा हम धन का समुचित संविभाग करनेवाले बनें। समुचित संविभाग यही है कि उसमें आधार देने योग्य लूले-लंगड़े व्यक्तियों को भी भाग प्राप्त हो। लोकोहित के कार्यों में लगे हुए लोग भी उसमें भाग प्राप्त करें तथा राजा को भी उसमें से उचित कर मिले। आध्रश्चियं मन्यमान: तुरश्चिद् राजा चिद् यं भगं मक्षीत्याह । हे प्रभो! इस प्रकार धन का समुचित संविभाग करनेवाले (मयि) = मुझमें वसु (धेहि) = प्रशस्त धन धारण कीजिए।
भावार्थ - हम धनों का यज्ञों में विनियोग करें तथा धनों का उचित संविभाग करते हुए प्रशस्त धनों के पात्र बनें।
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