अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
वा॒युर्मा॒न्तरि॑क्षेणै॒तस्या॑ दि॒शः पा॑तु॒ तस्मि॑न्क्रमे॒ तस्मि॑ञ्छ्रये॒ तां पुरं॒ प्रैमि॑। स मा॑ रक्षतु॒ स मा॑ गोपायतु॒ तस्मा॑ आ॒त्मानं॒ परि॑ ददे॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवा॒युः। मा॒। अ॒न्तरि॑क्षेण। ए॒तस्याः॑। दि॒शः। पा॒तु॒। तस्मि॑न्। क्र॒मे॒। तस्मि॑न्। श्र॒ये॒। ताम्। पुर॑म्। प्र। ए॒मि॒। सः। मा॒। र॒क्ष॒तु॒। सः। मा॒। गो॒पा॒य॒तु॒। तस्मै॑। आ॒त्मान॑म्। परि॑। द॒दे॒। स्वाहा॑ ॥१७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
वायुर्मान्तरिक्षेणैतस्या दिशः पातु तस्मिन्क्रमे तस्मिञ्छ्रये तां पुरं प्रैमि। स मा रक्षतु स मा गोपायतु तस्मा आत्मानं परि ददे स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठवायुः। मा। अन्तरिक्षेण। एतस्याः। दिशः। पातु। तस्मिन्। क्रमे। तस्मिन्। श्रये। ताम्। पुरम्। प्र। एमि। सः। मा। रक्षतु। सः। मा। गोपायतु। तस्मै। आत्मानम्। परि। ददे। स्वाहा ॥१७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
विषय - 'वायु' अन्तरिक्ष के साथ पूर्व-दक्षिण के बीच की दिशा में
पदार्थ -
१. (वायुः) = [वा गतिगन्धनयोः] निरन्तर गति के द्वारा बुराइयों का संहार करनेवाले वे प्रभु (अन्तरिक्षेण) = हृदयान्तरिक्ष के साथ तथा [अन्तरा क्षि] सदा मध्यमार्ग में चलने की प्रेरणा के साथ (मा) = मुझे (एतस्याः) = इस पूर्व-दक्षिण के बीच की दिशा से (पातु) = रक्षित करें। २. (तस्मिन् क्रमे) = उस प्रभु में ही मैं गति करूँ। शेष पूर्ववत्० |
भावार्थ - मैं पूर्व-दक्षिण के बीच की दिशा में गति के द्वारा बुराइयों का निरन्तर संहार करते हुए 'वायु' नामक प्रभु को अनुभव करूं। उन्हीं में स्थित हुआ-हुआ गति कीं।
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