अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
वा॒युर्मा॒न्तरि॑क्षेणै॒तस्या॑ दि॒शः पा॑तु॒ तस्मि॑न्क्रमे॒ तस्मि॑ञ्छ्रये॒ तां पुरं॒ प्रैमि॑। स मा॑ रक्षतु॒ स मा॑ गोपायतु॒ तस्मा॑ आ॒त्मानं॒ परि॑ ददे॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवा॒युः। मा॒। अ॒न्तरि॑क्षेण। ए॒तस्याः॑। दि॒शः। पा॒तु॒। तस्मि॑न्। क्र॒मे॒। तस्मि॑न्। श्र॒ये॒। ताम्। पुर॑म्। प्र। ए॒मि॒। सः। मा॒। र॒क्ष॒तु॒। सः। मा॒। गो॒पा॒य॒तु॒। तस्मै॑। आ॒त्मान॑म्। परि॑। द॒दे॒। स्वाहा॑ ॥१७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
वायुर्मान्तरिक्षेणैतस्या दिशः पातु तस्मिन्क्रमे तस्मिञ्छ्रये तां पुरं प्रैमि। स मा रक्षतु स मा गोपायतु तस्मा आत्मानं परि ददे स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठवायुः। मा। अन्तरिक्षेण। एतस्याः। दिशः। पातु। तस्मिन्। क्रमे। तस्मिन्। श्रये। ताम्। पुरम्। प्र। एमि। सः। मा। रक्षतु। सः। मा। गोपायतु। तस्मै। आत्मानम्। परि। ददे। स्वाहा ॥१७.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रक्षा करने का उपदेश।
पदार्थ
(वायुः) सर्वव्यापक परमेश्वर (अन्तरिक्षेण) मध्यलोक के साथ [पवन, मेघ आदि के साथ] (मा) मुझे (एतस्याः) इस [बीचवाली] (दिशः) दिशा से (पातु) बचावे, (तस्मिन्) उसमें... [म०१] ॥२॥
भावार्थ
मन्त्र १ के समान है ॥२॥
टिप्पणी
२−(वायुः) सर्वव्यापकः परमेश्वरः (अन्तरिक्षेण) मध्यलोकेन (एतस्याः) मध्यवर्तिन्याः (दिशः) दिशायाः सकाशात्। अन्यत् पूर्ववत्-म०१॥
विषय
'वायु' अन्तरिक्ष के साथ पूर्व-दक्षिण के बीच की दिशा में
पदार्थ
१. (वायुः) = [वा गतिगन्धनयोः] निरन्तर गति के द्वारा बुराइयों का संहार करनेवाले वे प्रभु (अन्तरिक्षेण) = हृदयान्तरिक्ष के साथ तथा [अन्तरा क्षि] सदा मध्यमार्ग में चलने की प्रेरणा के साथ (मा) = मुझे (एतस्याः) = इस पूर्व-दक्षिण के बीच की दिशा से (पातु) = रक्षित करें। २. (तस्मिन् क्रमे) = उस प्रभु में ही मैं गति करूँ। शेष पूर्ववत्० |
भावार्थ
मैं पूर्व-दक्षिण के बीच की दिशा में गति के द्वारा बुराइयों का निरन्तर संहार करते हुए 'वायु' नामक प्रभु को अनुभव करूं। उन्हीं में स्थित हुआ-हुआ गति कीं।
भाषार्थ
(अन्तरिक्षेण) अन्तरिक्ष के साथ वर्तमान (वायुः) वायु में प्रविष्ट प्राणस्वरूप परमेश्वर (एतस्याः दिशः) इस अर्थात् पूर्व मन्त्रोक्त पूर्व दिशा से (मा) मेरी (पातु) रक्षा करे। तस्मिन्—शेष पूर्ववत्।
टिप्पणी
[सम्भवतः यह पूर्व दिशा “पूर्वी वायु” के प्रवाहित होने की दिशा हो। या यह अवान्तर दिशा हो, अर्थात पूर्व-दक्षिण दिशा।]
विषय
रक्षा की प्रार्थना।
भावार्थ
(वायुः) सर्व व्यापक वायु या वायु के समान तीव्र वेगवान् बलवान् पुरुष (अन्तरिक्षेण) अन्तरिक्ष या उसके समान सर्वाच्छादक पुरुष के बल से (एतस्या दिशः) इसी पूर्व दिशा से (पातु) मेरी रक्षा करे। (तस्मिन् क्रमे०) पूर्व कहे ‘वायु’ में मैं पैर जमाऊं, उसे वश करूं, (तस्मिन् श्रये) उसमें आश्रय पाऊं० इत्यादि पूर्ववत्।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवताः । १-४ जगत्यः। ५, ७, १० अतिजगत्यः, ६ भुरिक्, ९ पञ्चपदा अति शक्वरी। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Protection and Security
Meaning
May Vayu, leading divine energy of life in the firmament, with the middle regions, from the same direction protect and promote me. Therein I advance. Therein I rest and sustain myself. That same supreme life and energy I attain to. May that guard me. May that preserve me. To that I surrender myself life and soul in truth of word and deed.
Translation
May the pervading Lord (Vayu), along with the midspace, guard me from this direction (middle of the east and the south). I step in Him; in Him I take shelter; to that castle do I go. May He defend me; may He protect me. To Him I totally surrender myself. Svaha.
Translation
Vayu, the All-pervading God guard me with firmament from this region. (The east)........, soul to Him......... appreciation,
Translation
May the Almighty protect me from this mid-quarter i.e., south-eastern direction through the atmosphere. I (the devotee) just step unto Him . . . so on like the above.
Footnote
Vasus: Ether, air, fire, water, earth, Sun, constellations and electricity. 24 years old celibates, too.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(वायुः) सर्वव्यापकः परमेश्वरः (अन्तरिक्षेण) मध्यलोकेन (एतस्याः) मध्यवर्तिन्याः (दिशः) दिशायाः सकाशात्। अन्यत् पूर्ववत्-म०१॥
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