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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 17/ मन्त्र 8
    सूक्त - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - जगती सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त

    इन्द्रो॑ मा म॒रुत्वा॑ने॒तस्या॑ दि॒शः पा॑तु॒ तस्मि॑न्क्रमे॒ तस्मि॑ञ्छ्रये॒ तां पुरं॑ प्रैमि। स मा॑ रक्षतु॒ स मा॑ गोपायतु॒ तस्मा॑ आ॒त्मानं॒ परि॑ ददे॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्‍द्रः॑। मा॒। म॒रुत्ऽवा॑न्। ए॒तस्याः॑। दि॒शः। पा॒तु॒। तस्मि॑न्। क्र॒मे॒। तस्मि॑न्। श्र॒ये॒। ताम्। पुर॑म्। प्र। ए॒मि॒। सः। मा॒। र॒क्ष॒तु॒। सः। मा॒। गो॒पा॒य॒तु॒। तस्मै॑। आ॒त्मान॑म्। परि॑। द॒दे॒। स्वाहा॑ ॥१७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो मा मरुत्वानेतस्या दिशः पातु तस्मिन्क्रमे तस्मिञ्छ्रये तां पुरं प्रैमि। स मा रक्षतु स मा गोपायतु तस्मा आत्मानं परि ददे स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्‍द्रः। मा। मरुत्ऽवान्। एतस्याः। दिशः। पातु। तस्मिन्। क्रमे। तस्मिन्। श्रये। ताम्। पुरम्। प्र। एमि। सः। मा। रक्षतु। सः। मा। गोपायतु। तस्मै। आत्मानम्। परि। ददे। स्वाहा ॥१७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 17; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    १. (मरुत्वान) = प्राणोंवाले (इन्द्रः) = सर्वशक्तिमान् प्रभु (मा) = मुझे (एतस्याः दिश:) = इस उत्तर-पूर्व के बीच की दिशा से (पातु) = रक्षित करें। २. इस (सर्वशक्तिमान्) = सब प्राणशक्ति को देनेवाले प्रभु में ही मैं गति करता हूँ। शेष पूर्ववत्।

    भावार्थ - मैं इस उत्तर-पूर्व के बीच की दिशा में सर्वशक्तिमान् प्रभु को अपने लिए सर्वप्राणशक्ति को लिये हुए अनुभव करूँ। इनमें ही गति कीं।

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