अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
वरु॑णो मादि॒त्यैरे॒तस्या॑ दि॒शः पा॑तु॒ तस्मि॑न्क्रमे॒ तस्मि॑ञ्छ्रये॒ तां पुरं॒ प्रैमि॑। स मा॑ रक्षतु॒ स मा॑ गोपायतु॒ तस्मा॑ आ॒त्मानं॒ परि॑ ददे॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवरु॑णः। मा॒। आ॒दि॒त्यैः। ए॒तस्याः॑। दि॒शः। पा॒तु॒। तस्मि॑न्। क्र॒मे॒। तस्मि॑न्। श्र॒ये॒। ताम्। पुर॑म्। प्र। ए॒मि॒। सः। मा॒। र॒क्ष॒तु॒। सः। मा॒। गो॒पा॒य॒तु॒। तस्मै॑। आ॒त्मान॑म्। परि॑। द॒दे॒। स्वाहा॑ ॥१७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
वरुणो मादित्यैरेतस्या दिशः पातु तस्मिन्क्रमे तस्मिञ्छ्रये तां पुरं प्रैमि। स मा रक्षतु स मा गोपायतु तस्मा आत्मानं परि ददे स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठवरुणः। मा। आदित्यैः। एतस्याः। दिशः। पातु। तस्मिन्। क्रमे। तस्मिन्। श्रये। ताम्। पुरम्। प्र। एमि। सः। मा। रक्षतु। सः। मा। गोपायतु। तस्मै। आत्मानम्। परि। ददे। स्वाहा ॥१७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 17; मन्त्र » 4
विषय - आदित्यों के साथ 'वरुण' दक्षिण-पश्चिम के मध्य में
पदार्थ -
१. (वरुण:) = सब बुराइयों का निवारण करनेवाले श्रेष्ठ प्रभु (आदित्यैः) [आदानात्] = अच्छाइयों को ग्रहण करने की वृत्तियों के साथ (मा) = मुझे (एतस्याः दिशा) = इस दक्षिण-पश्चिम के बीच की दिशा से (पातु) = रक्षित करें। २. (तस्मिन् क्रमे) = आदित्यों के साथ होनेवाले वरुण का मैं दक्षिण पश्चिम के मध्य में ध्यान करूँ और उसमें स्थित हुआ-हुआ कर्तव्यकर्मों को करूं। शेष पूर्ववत् |
भावार्थ - मैं दक्षिण-पश्चिम के मध्य में बुराइयों का निवारण करनेवाले श्रेष्ठ प्रभु का ध्यान करूँ। वे मुझे सब अच्छाइयों को प्राप्त करानेवाले हैं। उन्हीं में स्थित होकर मैं गति करूँ।
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