अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - साम्नी त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
अ॒ग्निं ते वसु॑वन्तमृच्छन्तु। ये मा॑ऽघा॒यवः॒ प्राच्या॑ दि॒शोऽभि॒दासा॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम्। ते। वसु॑ऽवन्तम्। ऋ॒च्छ॒न्तु॒। ये। मा॒। अ॒घ॒ऽयवः॑। प्राच्याः॑। दि॒शः। अ॒भि॒ऽदासा॑त्॥ १८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं ते वसुवन्तमृच्छन्तु। ये माऽघायवः प्राच्या दिशोऽभिदासात् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम्। ते। वसुऽवन्तम्। ऋच्छन्तु। ये। मा। अघऽयवः। प्राच्याः। दिशः। अभिऽदासात्॥ १८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
विषय - 'आगे बढ़ने की भावना' व पापवृत्तियों का निराकरण
पदार्थ -
१.(ये) = जो (अघायवः) = [malicious, harmful] अशुभ को चाहनेवाले हानिकर भाव (प्राच्यः दिश:) = पूर्व दिशा की ओर से (मा) = मुझे (अभिदासात्) = [दसु उपक्षये] उपक्षीण [हिंसित] करना चाहें, (ते) = वे (वसुवन्तम्) = सब वसुओंवाले-निवास के लिए आवश्यक तत्त्वोंवाले (अग्निम्) = अग्रणी प्रभु को (ऋच्छन्तु) = [ऋच्छ-reach, fail in faculties] प्राप्त होकर क्षीणशक्ति हो जाएँ। २. इस पूर्वदिशा में अग्नि' प्रभु वसुओं के साथ मेरा रक्षण कर रहे हैं। जो भी दास्यवभाव इधर से मुझपर आक्रमण करता है, वह इस प्रभु को प्रास होकर नष्ट हो जाता है। प्रभु रक्षक हैं तो ये मुझ तक पहुँच ही कैसे सकते हैं?
भावार्थ - पूर्वदिशा से कोई पाप मुझपर आक्रमण नहीं कर सकता। इधर तो 'अग्नि' नामक प्रभु मेरा रक्षण कर रहे हैं न? आगे बढ़ने की प्रवृत्ति 'अग्नि' मुझे अशुभ भावनाओं से बचाती हैं।
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