अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 18/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - आर्च्यनुष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
सोमं॒ ते रु॒द्रव॑न्तमृच्छन्तु। ये मा॑ऽघा॒यवो॒ दक्षि॑णाया दि॒शोऽभि॒दासा॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठसोम॑म्। ते। रु॒द्रऽव॑न्तम्। ऋ॒च्छ॒न्तु॒। ये। मा॒। अ॒घ॒ऽयवः॑। दक्षि॑णायाः। दि॒शः। अ॒भि॒ऽदासा॑त्॥१८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमं ते रुद्रवन्तमृच्छन्तु। ये माऽघायवो दक्षिणाया दिशोऽभिदासात् ॥
स्वर रहित पद पाठसोमम्। ते। रुद्रऽवन्तम्। ऋच्छन्तु। ये। मा। अघऽयवः। दक्षिणायाः। दिशः। अभिऽदासात्॥१८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
विषय - सौम्यता व पापविनाश सोम
पदार्थ -
१. ये = जो (अघायवः) = अशुभ को चाहनेवाले (मा) = मुझे (दक्षिणायाः दिश:) = दक्षिणा दिक् से (अभिदासात्) = उपक्षीण करना चाहें (ते) = वे (रुद्रवन्तम्) = [रुत् द्र] रोगों को दूर भगाने की शक्तिवाले (सोमम्) = सौम्य [शान्त] प्रभु को (ऋच्छन्तु) = प्राप्त होकर विनष्ट हो जाएँ। २. इस दक्षिण दिशा में रुद्रोंवाले 'सोम' प्रभु मेरे रक्षक हैं। सब अशुभभाव इन प्रभु को प्रास होकर भस्म हो जाते हैं, मुझ तक पहुँचने से पूर्व ही विनष्ट हो जाते हैं। सौम्यता मुझे पापों से बचाती है।
भावार्थ - दक्षिण दिशा से कोई अशुभवृत्ति मुझपर आक्रमण नहीं कर पाती। इधर से 'सोम' प्रभु मेरा रक्षण कर रहे हैं। सौम्यता [नम्रता] से सब पाप नष्ट हो जाते हैं।
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