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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 18/ मन्त्र 6
    सूक्त - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - आर्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त

    अ॒पस्त ओष॑धीमतीरृच्छन्तु। ये मा॑ऽघा॒यव॑ ए॒तस्या॑ दि॒शोऽभि॒दासा॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पः। ते। ओष॑धीऽमतीः। ऋ॒च्छ॒न्तु॒। ये। मा॒। अ॒घ॒ऽयवः॑। ए॒तस्याः॑। दि॒शः। अ॒भि॒ऽदासा॑त् ॥१८.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपस्त ओषधीमतीरृच्छन्तु। ये माऽघायव एतस्या दिशोऽभिदासात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपः। ते। ओषधीऽमतीः। ऋच्छन्तु। ये। मा। अघऽयवः। एतस्याः। दिशः। अभिऽदासात् ॥१८.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 18; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. (ये) = जो (अघायव:) = अशुभ को चाहनेवाले पापभाव (मा) = मुझे (एतस्याः दिश:) = इस पश्चिम व उत्तर के बीच की दिशा से (अभिदासात्) = क्षीण करना चाहते हैं, (ते) = वे पापभाव (ओषधीमती:) = प्रशस्त ओषधियोंवाले (अप:) = सर्वव्यापक प्रभु को (ऋच्छन्तु) = प्रात होकर नष्ट हो जाएँ। २. प्रभु प्रदत्त ओषधि-वनस्पतिरूप सात्त्विक भोजन करते हुए हम पापवृत्तियों से दूर रहें। इन भोजनों के होने पर पापवृत्तियों का उद्भव ही नहीं होता।

    भावार्थ - पश्चिमोत्तरमध्यदिग्भाग से कोई पापभाव मुझपर आक्रमण नहीं कर सकता, इधर से प्रशस्त ओषधि-वनस्पतियों को लिये हुए व्यापक प्रभु मेरा रक्षण कर रहे हैं।

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