अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - आर्च्यनुष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
वरु॑णं॒ त आ॑दि॒त्यव॑न्तमृच्छन्तु। ये मा॑ऽघा॒यव॑ ए॒तस्या॑ दि॒शोऽभि॒दासा॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठवरु॑णम्। ते। आ॒दि॒त्यऽव॑न्तम्। ऋ॒च्छ॒न्तु॒। ये। मा॒। अ॒घ॒ऽयवः॑। ए॒तस्याः॑। दि॒शः। अ॒भि॒ऽदासा॑त् ॥१८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
वरुणं त आदित्यवन्तमृच्छन्तु। ये माऽघायव एतस्या दिशोऽभिदासात् ॥
स्वर रहित पद पाठवरुणम्। ते। आदित्यऽवन्तम्। ऋच्छन्तु। ये। मा। अघऽयवः। एतस्याः। दिशः। अभिऽदासात् ॥१८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 18; मन्त्र » 4
विषय - निषता व निष्पापता
पदार्थ -
१.(ये) = जो (अघायवः) = अशुभ को चाहनेवाले पापभाव (मा) = मुझे (एतस्याः दिश:) = इस दक्षिण पश्चिम के मध्यादि भाग से (अभिदासात्) = नष्ट करते हैं तो वे (आदित्यवन्तम्) = सब अच्छाइयों का आदान करनेवाली शुभ प्रवृत्तियों के साथ (वरुणम्) = पाप-निवारक प्रभु को (ऋच्छन्तु) = प्राप्त होकर नष्ट हो जाएँ। २. इस दक्षिण-पश्चिम के मध्यदिग्भाग से 'वरुण' प्रभु मेरा रक्षण कर रहे हैं। इधर से ये पापभाव मुझपर कैसे आक्रमण कर सकते हैं?
भावार्थ - दक्षिण-पश्चिम के मध्यदिग्भाग से कोई अशुभवृत्ति मुझपर आक्रमण नहीं कर सकती। इधर से 'वरुण' प्रभु मेरा रक्षण कर रहे हैं। वरुण-द्वेष-निवारण से सब बुराइयाँ दूर हो जाती हैं।
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