अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 2/ मन्त्र 2
शं त॒ आपो॑ धन्व॒न्याः॒ शं ते॑ सन्त्वनू॒प्याः॑। शं ते॑ खनि॒त्रिमा॒ आपः॒ शं याः कु॒म्भेभि॒राभृ॑ताः ॥
स्वर सहित पद पाठशम्। ते॒। आपः॑। ध॒न्व॒न्याः᳡। शम्। ते॒। स॒न्तु॒। अ॒नू॒प्याः᳡। शम्। ते॒। ख॒नि॒त्रिमाः॑। आपः॑। शम्। याः। कु॒म्भेभिः॑। आऽभृ॑ताः ॥२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
शं त आपो धन्वन्याः शं ते सन्त्वनूप्याः। शं ते खनित्रिमा आपः शं याः कुम्भेभिराभृताः ॥
स्वर रहित पद पाठशम्। ते। आपः। धन्वन्याः। शम्। ते। सन्तु। अनूप्याः। शम्। ते। खनित्रिमाः। आपः। शम्। याः। कुम्भेभिः। आऽभृताः ॥२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
विषय - 'धन्वन्या:-खनित्रिमाः' आपः
पदार्थ -
१. (धन्वन्या:) = मरुप्रदेशों में रेगिस्तानों में होनेवाले (आपः) = जल (ते शम्) = तेरे लिए शान्तिकर हों। (अनूप्या:) = जल-समृद्ध-[कच्छ]-प्रदेशों में होनेवाले जल (ते शं सन्तु) = तेरे लिए शान्तिकर हों। २. (खनित्रिमाः आप:) = खनन से उत्पन्न कुएँ व तालाब आदि के जल (ते शम्) = तेरे लिए शान्तिकर हों और (या:) = जो (कुम्भेभिः आभृता:) = घड़ों से धारण किये गये जल हैं वे (शम्) = शान्ति देनेवाले हों।
भावार्थ - मरुस्थलों व कच्छप्रदेशों के जल हमारे लिए शान्तिकर हों। इसी प्रकार कुएँ व घड़ों के जल हमें शान्ति प्राप्त कराएँ।
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