अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
ता अ॒पः शि॒वा अ॒पोऽय॑क्ष्मं॒कर॑णीर॒पः। यथै॒व तृ॑प्यते॒ मय॒स्तास्त॒ आ द॑त्त भेष॒जीः ॥
स्वर सहित पद पाठताः। अ॒पः। शि॒वाः। अ॒पः। अ॒य॒क्ष्म॒म्ऽकर॑णीः। अ॒पः। यथा॑। ए॒व। तृ॒प्य॒ते॒। मयः॑। ताः। ते॒। आ। द॒त्त॒। भे॒ष॒जीः ॥२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
ता अपः शिवा अपोऽयक्ष्मंकरणीरपः। यथैव तृप्यते मयस्तास्त आ दत्त भेषजीः ॥
स्वर रहित पद पाठताः। अपः। शिवाः। अपः। अयक्ष्मम्ऽकरणीः। अपः। यथा। एव। तृप्यते। मयः। ताः। ते। आ। दत्त। भेषजीः ॥२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
विषय - 'भेषजी:' अपः
पदार्थ -
१. (ता:) = वे (अप:) = जल (शिवाः अप:) = कल्याणकारी जल हैं। ये (अप:) = जल (अयक्ष्मंकरणी:) = यक्ष्मा आदि रोगों को दूर करनेवाले हैं। २. अत: (ते) = वे आप लोग (ता:) = उन (भेषजी:) = औषधभूत जलों को (आदत्त) = स्वीकार करो-इसप्रकार ग्रहण करो (यथा) = जिससे (मयः) = कल्याण, सुख व नीरोगता-(तृप्यते एव) = बढ़ती ही है।
भावार्थ - जल नीरोगता देनेवाले हैं। इनके ठीक प्रयोग से सुख-वृद्धि होती है। जलों के ठीक प्रयोग से स्वस्थ बना हुआ यह पुरुष-'अथर्वा' बनता है। शरीर के स्वस्थ होने पर स्वस्थ मनवाला बनता है-डॉवाडोल नहीं होता। यह अंग-प्रत्यंग में रसवाला'अंगिरा:' होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
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